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भारतीय कुटीर उद्योग का बढ़ता बाज़ार | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भारत के कुटीर उद्योग से जुड़े कारीगर राजस्थान, गुजरात, बंगाल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश के छोटे गाँवों और क़स्बों में भले ही बसे हों, लेकिन इन दिनों उनके हाथों से बना सामान मंहगे दामों में बिक रहा हैं लंदन, पैरिस, न्यूयॉर्क, मिलान और टोरंटो में. दरअसल सजने संवरने का भारतीय रंग इन दिनों विदेशियों पर चढ़ा हुआ है. ये बात साफ हो जाती है लंदन की कॉवेन्ट गार्डन मार्केट में पहुँचते ही. यहाँ साल के 365 दिन पर्यटकों का तांता लगा रहता है. नामचीन ब्रांडों की दुकानों में पर्यटक आते हैं नयी चीज़ों की तलाश में. इसी मार्केट में मानसून, आफ़्टर शॉक, टॉप शॉप जैसे बड़े विक्रेता की दुकानों में कानों की झुमकियों से लेकर बाँदिनी सिल्क की स्कर्टें बिक रही हैं 'मेड इन इंडिया' टैग के साथ. वर्ष 2001 से भारतीय शैली की हाथ से बनी चीज़ों में पश्चिमी ग्राहकों कि रुचि बढ़ी है और ये चलन इस वक्त पूरे परवान पर है. पिछले चार वर्षों में ही भारतीय कुटीर उद्योग का निर्यात दुगुना से भी ज़्यादा हो गया है. वर्ष 2001-02 में भारत से 6770 करोड़ रुपये के कुटीर उद्योग उत्पाद निर्यात किए गए. यह आँकड़ा 2005-06 में बढ़ कर 14527 करोड़ रुपये तक पहुँच गया. बढ़ती मांग का कारण पिछले पाँच सालों से लगातार बढ़ते इस चलन को समझाया जयपुर की कंपनी 'अनोखी' के साथ काम रही समेन्था मिलवर्ड नें. अनोखी के ब्लाक प्रिंट के कपड़े अंतरराष्ट्रीय मार्केट के लिए बनाए जाते हैं.
समेन्था कहती हैं कि ये दौर हे अपने अंदर झाँकने का और आध्यात्मिकता का. ऐसी बातों को लोग भारत से जोड़ते हैं. भारतीय चीज़ें रंगों से भरी होती हैं. कपड़े हल्के और नर्म होते हैं. उनमें कुछ मस्ती है जो पश्चिमी डिज़ाइन में नहीं मिलती. आफ्टर शॉक के मालिक हीरो हरजानी बताते हैं कि भारत की चमक-धमक लोगों को भा गई है. पार्टी या क्लब जाने के लिए लोग कढ़ाई, मोती और सलमे सितारे जड़े कपड़े पसंद करते हैं. इसीलिए भारतीय शैली से बनी हमारी चीज़ें, मैड्रिड, मिलान और दुबई में मंहगे दामों में बिकते हैं और फैशनेबल मानी जाती हैं. जब तक लोग पार्टियों और रेस्तरां में जाएगें, तब कर भारत की मोती, सिक्विन जड़ी चीज़ें की मांग बनी रहेगी. लेकिन सिर्फ इनकी खूबसूरती और नयापन ही वजह नहीं है. दरअसल विश्व भर में सिंथेटिक रंगों के खिलाफ मुहिम छिड़ी हुई है. ऐसे में 12वीं सदी के फ़ार्मूला पर आधारित प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल कर बनाए गए कपड़े लोगों लुभा रहे है. पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक तरीके से रंगे जाने वाले ये कपड़े पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह भी है. कारीगरों को फ़ायदा गुजरात में 'सेवा' इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए सालाना एक करोड़ रुपये का व्यापार करती है . उनके निर्यात में शामिल है शीशे जड़े तोरन, रंग-बिरंगी पटोला और बंधेज के कपड़े.
'सेवा' की व्यापार इकाई की अध्यक्ष मोना दवे ने बताया की यूरोपीय बाज़ार के साथ व्यापार करने के लिए उनकी संस्था ने गाँवों में बसी कलाकार बहनों को एकजुट किया और प्रशिक्षण भी दिया. लंदन में 'गणेशा' नाम की दुकान में भी हाथ से बनी हुई चादरें, कान्था की कढ़ाई वाले टेबल-कवर और मोती के रंग बिरंगे ज़ेवर बेचे जाते हैं. दक्षिण का काजीवरम सिल्क, बंगाल का कन्था और उड़ीसा का टस्सर भी यहां मिल जाएँगे. दुकान के मालिक पुर्णेंदु के पिता पश्चिम बंगाल से हैं. यही वजह है कि वो इस इलाक़े की पारंपरिक कला पर ज्यादा ध्यान देते है. पुर्णेंदु कहते हैं, "मैं कोशिश करता हुँ कि ऐसी संस्थाओं से सामान खरीद कर बेचा जाए जो इन कारीगरों की आर्थिक और सामाजिक स्थिती में सुधार लाने में लगी हो जैसे बंगाल की 'कोलकाता रेस्क्यू' और गुजरात की 'सेवा'. " बदलाव की ज़रूरत फिलहाल दुनिया भर से व्यापारी भारत का रुख कर रहे हैं पर फैशन बदलते देर नहीं लगती. समेन्था मिलवर्ड कहती हैं, "भारत को ये देखना है कि वो दुनिया के लिए क्या बना सकता है. सिर्फ भारतीय शैली का सामान ही नहीं बल्कि अपने शिल्प, कढ़ाई और कौशल से, ऐसा सामान तैयार हो जो केवल भारतीयता की झलक न दे." इस चलन का फायदा उठाने के लिए अपनी पारंपरिक कला और तकनीक को संभालते हुए आधुनिक फैशन के अनुकूल सामान बनाना ही भारतीय कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. ऐसे में हाथ से काम करने वाले कारीगरों की आर्थिक स्थिति में धीमी गति से सुधार हो रहा है, साथ ही भारतीय कला को विश्व पर अपनी छाप छोड़ने का मौका भी मिल रहा है. | इससे जुड़ी ख़बरें ![]() 27 फ़रवरी, 2006 | मनोरंजन ![]() 24 सितंबर, 2004 | कारोबार इंटरनेट लिंक्स बीबीसी बाहरी वेबसाइट की विषय सामग्री के लिए ज़िम्मेदार नहीं है. | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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