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आज़ाद भारत में आज़ाद हिंद | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
देश की आज़ादी के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्थापित की हुई आज़ाद हिंद फ़ौज का उद्देश्य भले पूरा हो गया हो, छत्तीसगढ़ के जंगलों में बसे आज़ाद हिंद फ़ौज के हज़ारों आदिवासी सैनिक अब भी सेना की वर्दी पहने 'आज़ादी' की लड़ाई लड़ रहे हैं. इन सैनिकों के अपने नियम-क़ायदे हैं, अपना क़ानून और संविधान है, अपनी सरकार है. इन आदिवासी सैनिकों की वर्तमान सरकार में आस्था तो है लेकिन ये मानते हैं कि जब तक देश और राज्य की बागडोर आदिवासियों के हाथ में नहीं आ जाती तब तक ये आज़ादी अधूरी है. ज़ाहिर है, इन सैनिकों की पूरी लड़ाई इसी मुद्दे पर केंद्रित है. वर्ष 1920 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के निर्देश पर कांकेर के हीरा सिंहदेव मांझी ने 57 आदिवासी समुदायों को साथ लेकर मध्य भारत के आदिवासियों की आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया और पृथक कंगला मांझी सरकार की घोषणा की.
कंगला मांझी सरकार के आदिवासी सैनिकों ने आज़ादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष किया. देश आज़ाद हुआ और इस बात को 58 साल होने को आ गए. लेकिन देश की आज़ादी के बाद भी आदिवासियों की इस फ़ौज ने अपना सांगठनिक ढ़ांचा बरक़रार रखा और अब पीढ़ी दर पीढ़ी इस फ़ौज के सैनिक आदिवासी समाज के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं. संगठन में बाक़ायदा अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व के लिए चुनाव होते हैं और नयी कार्ययोजनाओं पर विमर्श होता है. हालांकि सारे मामलों में राजमाता का फ़ैसला सर्वोपरि होता है. संगठन में हीरा सिंहदेव मांझी की विधवा बिरझा देवी को राजमाता का दर्जा प्राप्त था, जिनका इसी वर्ष निधन हो गया. उसके बाद संगठन की कमान उनकी दूसरी पत्नी फुलवा देवी ने संभाली है. ख़राब माली हालत आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की मांग है कि वर्तमान व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए शासकीय नियुक्तियों में केवल फ़ौज के सैनिकों की ही भर्ती की जाए. प्रत्येक सैनिक परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाए. इसके अलावा आदिवासी समाज के तमाम विवादित मुद्दों को निपटारे के लिए थाने और अदालत के बजाय आदिवासी पंचायत के हवाले कर देना चाहिए. साथ ही फ़ौज से जुड़े सभी आदिवासी सैनिकों को 5-5 एकड़ कृषि योग्य ज़मीन भी सरकार की ओर से मिलनी चाहिए.
मांगों की एक लंबी-चौड़ी सूची है. हालांकि आज़ाद हिंद फ़ौज के इन सैनिकों की माली हालत ख़राब है. आज़ाद हिंद फ़ौज की हरी वर्दी पहनने वाले बुजुर्ग और उनके बच्चों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार अब भी नगण्य है. अंधविश्वास ने कहीं गहरे तक इन्हें जकड़ रखा है. अधिकतर सैनिक मज़दूरी करके अपनी आजीविका चला रहे हैं. लेकिन इनके हौसले बुलंद हैं. स्टार लगी हुयी वर्दी और “नया समाजवाद सरकार ” की बैज लगाए युवा और बुजुर्ग सैनिकों में लड़ने का जज़्बा अब भी बरक़रार है. शायद यही कारण है कि चल-अचल संपत्ति की ख़रीद-बिक्री के लिए मांझी सैनिकों के बीच आज भी आज़ाद हिंद फ़ौज का स्टॉम्प पेपर चलन में है. “भारत भूमिका ” नामक संविधान और “ क़ानूनी रजिस्टर ” का पालन करना तो इन सैनिकों के लिए एक अनिवार्य नियम की तरह है. मांझी सरकार में आस्था रखने वाले आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों का आरोप है कि पाँच सितंबर, 1984 को संगठन के मुखिया हीरा सिंहदेव मांझी की मौत के बाद देश की सरकार का रवैया बदल गया है. जनजातीय संगठनों की भूमिका को रेखांकित करने के उद्देश्य से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने मांझी सरकार की स्थापना करने वाले हीरा सिंहदेव मांझी को किसी ज़माने में सम्मानित भी किया था लेकिन इन सैनिकों का कहना है कि आज की सरकार इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करती है और नौकरशाह इनका मज़ाक उड़ाते हैं. कहीं सुनवाई नहीं खेती और मज़दूरी से समय निकाल कर बैठक, धरना, जुलूस निकालने वाले पूरे राज्य में फैले आज़ाद हिंद फ़ौज के लगभग 10 हज़ार आदिवासी सैनिकों के इस संगठन के राजेश्वर अर्थात सचिव मंगल सिंह मरकाम कहते है, “ हम चाहते हैं कि आदिवासियों को जल, जंगल और ज़मीन पर हक़ मिले. जिन आदिवासियों ने अपना सब कुछ लुटा कर अपने को आज़ादी की लड़ाई में झोंक दिया, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. हम अंतरराष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना करना चाहते हैं.” अंतरराष्ट्रीय समाजवाद की स्थापना के सपने संजोने वाले मंगल सिंह अपने को धमधागढ़ रियासत का वारिस बताते हैं. लेकिन छूटते ही यह बताना नहीं भूलते कि आज उनके पास कुछ भी नहीं है. मंगल सिंह मरकाम की 15 एकड़ ज़मीन पर गांव के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बरसों से कब्जा जमा रखा है, जिसके लिए उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री तक से फरियाद की लेकिन कुछ नहीं हुआ.
परंपरा बैगा कहलाने वाले आज़ाद हिंद फ़ौज के राज्य प्रमुख और धर्म गुरु शिव कुमार खुशेंगा का दावा है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ठ्र, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और बिहार में मांझी व गौंड़ समुदाय से जुड़े लगभग दो लाख सैनिक सक्रिय हैं और उनका संगठन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैला है. अपना ज़्यादातर समय पूजा-पाठ में गुजारने वाले बांधा गांव के निवासी खुशेंगा राजनीतिज्ञों से ख़ासे नाराज़ हैं. वे कहते हैं, “ राजनीतिज्ञों को जब ज़रुरत होती है तो वो हमारे पास आते हैं लेकिन जब हमारी बारी आती है, तो उनके पास हमारे लिए समय नहीं होता.” बहरहाल आज़ादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इन आदिवासी सैनिकों ने पिछले कुछ सालों से 15 अगस्त को गुलामी दिवस मनाना शुरु किया है. गुलामी दिवस क्यों, इसका जवाब हमें संगठन की बिलासपुर जिला इकाई के युवा सदस्य संतोष सिंह ने दिया, “ क्योंकि ये आज़ादी झूठी है.” |
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