मूंग-मसूर की दाल में पाए जाने वाला केमिकल ग्लाइफ़ोसेट क्या वाक़ई ख़तरनाक है?

  • कीर्ति दुबे
  • बीबीसी संवाददाता
मूंग-मसूर की दाल

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इंसान की किसी बात पर दाल गले न गले लेकिन रसोई में पक रही दाल ज़रूर गल जाती है. भारत के किसी भी हिस्से में खाने की थाली पर निगाह डालेंगे तो दाल शायद ज़रूर देखने को मिले.

मगर अपने दोस्तों से 'जैसे-तैसे दाल रोटी चल रही है' कहते हुए अचानक आपको पता चले कि आपकी दाल में प्रोटीन नहीं, ज़हर है. तब?

हाल ही में फ़ूड सेफ़्टी नियामक फ़ूड सेफ़्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (FSSAI) ने इस बारे में राज्यों को एक निर्देश जारी किया है. इसके मुताबिक़, विदेशों से आयात होने वाली मूंग, मसूर की दालों में भारी मात्रा में ग्लाइफ़ोसेट होने की संभावना है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.

एफ़एसएसआई ने राज्य स्तरीय नियामक अधिकारियों से इन दालों के नमूनों की जांच हर 15 दिन पर करने और उन्हें दिल्ली भेजने को कहा है.

बीबीसी हिंदी से बात करते हुए एफ़एसएसएई के एडवाइज़र सुनील बख्शी ने बताया, ''किसी भी खाद्य पदार्थ में कीटनाशक की सही मात्रा हम तय करते हैं. अपने नए निर्देश में हमने आयात होने वाली इन दालों में ग्लाइफ़ोसाइट की संभावना जाहिर की है. चूंकि हमारे पास खाने में ग्लाइफ़ोसाइट की मात्रा कितनी हो इसे लेकर कोई तय मानक नहीं हैं तो हमने अभी कोडेक्स के मानकों के आधार पर राज्यों को इन दालों की जांच के लिए कहा है. अगर दालों में 5 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम से ज्यादा कैमिकल मिलता है तो ऐसी दालों को रिजेक्ट किया जाए.''

दाल, ऑर्डर

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ग्लाइफ़ोसेट क्या है और इसके नुकसान?

रोज के खाने में शामिल दाल में पाया जाने वाला ग्लाइफ़ोसेट आख़िर है क्या, अगर दाल में इसकी पहचान करनी हो तो कैसे करेंगे?

ऐसे ही सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी हिंदी ने न्यूट्रीशियन और इन मामलों जानकारों से बात की.

ग्लाइफ़ोसेट एक हर्बीसाइड (एक तरह का कीटनाशक) है. इसका इस्तेमाल दुनियाभर में कृषि के क्षेत्र में किया जाता है. ख़ासकर अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूके की फ़सलों में इसका इस्तेमाल आम और कानूनी है. इसे दुनिया में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करने वाला कीटनाशक माना जाता है.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की एक स्टडी के मुताबिक़, ग्लाइफ़ोसेट का इस्तेमाल 5.8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होना चाहिए.

न्यूट्रीशनिस्ट हर्षिता दिलावरी ने बीबीसी हिंदी को बताया, ''ग्लाइफ़ोसेट मनुष्यों के शरीर में किसी फ़सलों के अवशेष के रूप में ही ज़्यादातर पहुंचता है. इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होती है और कई गंभीर बीमारियों का ख़तरा रहता है.

ग्लाइफ़ोसेट एक 'प्लांट-किलर' है.

ये पौधों में प्रोटीन बनने की क्रिया को बाधित कर देता है, जिससे पौधों का विकास रुक जाता है. ऐसे में अगर ये शरीर में चला जाए तो शरीर में प्रोटीन के कामकाज को प्रभावित करता है. इससे ट्यूमर, प्रजनन संबंधी समस्या और किडनी से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं.

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कैंसरा का भी है ख़तरा और कैसे करें पहचान?

नेशनल पेस्टीसाइड इंफॉर्मेशन सेंटर के मुताबिक, ग्लाइफ़ोसेट की अधिक मात्रा कैंसर का ख़तरा भी बढ़ा सकती है.

हालांकि ऐसा कोई केस सामने नहीं आया है, जिससे इस कैंसर होने की पुष्टि की जा सके. अमरीका की एनरेस्को लैब की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अमरीका फ़सलों में इसका इतना इस्तेमाल करता है कि ज़्यादातर अमरीकी लोगों के यूरीन में इसकी मात्रा पाई गई है.

हालांकि बख्शी इससे अलग राय रखते हैं.

उन्होंने कैंसर होने के दावे को नकारते हुए कहा, ''कोई भी कीटनाशक नुकसानदेह होता है. लेकिन फ़सलों की पैदावार को बढ़ाने के लिए की जाने वाली प्रैक्टिस अगर तय नियमों के साथ हो और ये केमिकल सही मात्रा में हो तो नुकसान से बचा जा सकता है.

यूरोपीय फ़ूड सेफ्टी अथॉरिटी के मुताबिक़, अगर सावधानी से ग्लाइफ़ोसाइट का इस्तेमाल किया जाता है तो इससे कैंसर नहीं होगा.

हर्षिता दिलावरी के मुताबिक, ''ग्लाइफ़ोसेट मानव शरीर के संपर्क में आने से आंखों, गले और त्वचा पर तेज़ खुजली होती है. शोध में इस केमिकल का इस्तेमाल पशुओं पर किया गया. जिसके बाद इनमें उल्टियां, पाचन संबंधी परेशानियां भी सामने आई.''

फ़सलों में तो ये पाउडर और तरल दोनों ही तरह से इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन पानी के संपर्क में आते ही ये फैल जाता है और इसे पहचानना मुश्किल हो जाता है.

हर्षिता दिलावरी बताती हैं, ''एफ़डीए के रजिस्टर्ड खाद्य लैब ही टेस्टिंग के जरिए इसकी पहचान कर सकते हैं. इसे देखकर पहचाना नहीं जा सकता.''

सुनील बख्शी कहते हैं, ''ऐसे पेस्टीसाइड को संवेदशील जांचों के ज़रिए ही पहचाना जा सकता है. जो लैब में ही संभव है जिसे रेगुलेटरी की निगरानी में ही किया जाता है. कीटनाशकों की बात करें तो गरम पानी से धोने पर इन्हें दूर या इसका असर कम किया जा सकता है. हालांकि ये ग्लाइफ़ोसाइट के लिए कितना कारगर साबित होगा ये स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन ये एक तरक़ीब हो सकती है. ''

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कितनी दालें आयात करता है भारत?

एफ़एसएसएआई के एक्ट में ये प्रावधान है जिसमें कोई भी आम व्यक्ति किसी भी खाद्य पदार्थों के सैंपल जांच के लिए दे सकता है.

ऐसे में अगर किसी ग्राहक को खरीदी गई दाल में ग्लाइफ़ोसेट होने का शक है तो वह इसे जांच के लिए अपने राज्य के लैब में भेज सकता है और अगर इसकी पुष्टि हो जाती है तो इन खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध लगाने का भी प्रावधान है.

ये एक ऐसा केमिकल है, जिसकी पहचान आप अपने घर की दालों में नहीं कर सकते, बल्कि लैब ही इसकी पहचान कर सकते हैं.

रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 2018-19 में 1.2 मिलियन टन दाल भारत में आयात होने की संभावना है. बीते साल ये आयात 5.6 मिलियन टन था. ये आंकड़े इसलिए कम हुए हैं क्योंकि भारत ने दालों के आयात कर में 50 फ़ीसदी तक की बढ़ोतरी की है.

मूंग-मसूर , दाल

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कितनी पौष्टिक है मसूर-मूंग

भारत की बात करें तो साल 2017-18 में देश में 24.51 मिलियन टन दालों का उत्पादन किया गया.

कनाडा भारत में दाल का सबसे बड़ा निर्यातक है. हालांकि कनाडा ने इस साल मसूर की ऊपज 14.5 फ़ीसदी घटा दी है और अब मटर और चना की दालों पर ज़्यादा जोर बढ़ा रहा है.

मसूर की दालों को बेहतरीन फ़ाइबर का स्त्रोत माना जाता है. शरीर में कोलेस्ट्रॉल को काबू में रखता है. इसमें पाई जाने वाली कम कैलोरी वजन कम करती है और ये प्रोटीन की मात्रा को बनाए रखती है. इसमें अच्छी मात्रा में विटामिन बी और प्रोटीन सहित सात मिनरल पाए जाते है.

अमरीका के कृषि विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 100 ग्राम मसूर की दाल में 3.3 मिलीग्राम आयरन पाया जाता है. जो लाल मांस में पाए जाने वाले 2.8 मिलीग्राम आयरन से भी ज़्यादा है.

मसूर की सबसे बड़ी ख़ासियत इसकी बेहद कम कैलोरी है. आप 100 ग्राम मसूर की दाल खाते हैं तो ये लगभग 1 फ़ीसदी ही कैलोरी आपके शरीर को देगा.

अमेरिकन जनरल क्लिनिकल न्यूट्रीशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अगर कोई खाने में दाल का सेवन करता है तो बिना दाल के खान से 31 फ़ीसदी ज़्यादा पेट भरा हुआ महसूस करता है. इसमें पाया जाने वाला फ़ाइबर इसके लिए जिम्मेदार होता है.

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दालों का इतिहास

मूंग और मसूर की दाल ठंड के मौसम में उगाई जाने वाली फ़सल है.

फसलों में इसका इतिहास लगभग 8000 साल पुराना है. कृषि के क्षेत्र में सबसे पुरानी क्रांति में गेंहू, जौ और तीसी जैसी फ़सलों के साथ मसूर के भी प्रमाण मिलते हैं.

साल 1972 में इज़राइली वैज्ञानिक डी ज़ौहरी के द्वारा किए गए एक शोध के मुताबिक, इस फ़सल की उत्पत्ति पूर्व से लेकर भूमध्य की उपजाऊ ज़मीन पर हुई. इसके अलावा अफ़्रीका, सेंट्रल यूरोप और अमरीका के कुछ हिस्सों में भी ये दालें उगाई जाती हैं.

दुनिया के कुल मूंग-मसूर की दालों के उत्पादन का लगभग 40 फ़ीसदी हिस्सा भारत करता है.

माना जाता है कि भूमध्य भाग से ही होती हुई ये दालें कांस्य युग में यूरोप, एशिया पहुंची थीं.

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