'कीचड़ कर रखा है ताकि यूपी में कमल खिल सके'

आज़म ख़ान

समाजवादी पार्टी में जारी घमासान के बीच पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म ख़ान ने कहा है कि वो इस पूरे घटनाक्रम से निराश हैं.

लेकिन आम मुसलमान मतदाता क्या सोचता है? हमने अपने फ़ेसबुक पन्ने पर मुसलमान युवाओं की राय मांगी थी, जिसमें से चुनिंदा टिप्पणियां हम प्रकाशित कर रहे हैं.

हारून रशीद ने लिखा है, "हम सिर्फ़ कलह पर नहीं, पूरे पाँच साल के कार्यकाल पर नज़र रख रहे हैं, अब सिर्फ ज़ीरा से काम नहीं चलेगा."

ज़मीर ख़ान ने लिखा, "मुलायम सिंह अपने बेटे की तुलना में कमजोर पड़ गए हैं, इसलिए भाजपा के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं."

मोहम्मद ज़ाहिद ने लिखा, "दरअसल, अखिलेश सरकार से मुसलमानों का भरोसा मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के समय माधुरी से ठुमके लगवाने के बाद उठ चुका है. अब मुसलमान मुद्दे पर वोट देगा."

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सलमान नौमानी, मोहम्मद आरिफ खान और हारुन राशिद (बाएं से दाएं)

शाहनवाज़ सिद्दीक़ी ने लिखा, "समाजवादी पार्टी में चल रही आंतरिक कलह हो सकता है कि बनावटी हो या फिर एक पक्ष द्वारा प्रभुत्व बनाने की क्रिया की दूसरे पक्ष की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो. यह तय है कि यह कवायद अखिलेश यादव की युवा विद्रोही की छवि बुन रही है, जो कि पिछले डेढ़ साल में किये गए विकास कार्यों के द्वारा बनाई गई छवि को ना सिर्फ मज़बूत करेगी बल्कि दो कदम आगे जाकर अगले चुनाव में जीत की दावेदारी को और पुख्ता करेगी."

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अता फ़ैसल लिखते हैं, "मीडिया और सोशल मीडिया पर ये राय गढ़ी जा रही है कि मुसलमान अखिलेश की तमाम नाकामियों और मुज़फ़्फ़रनगर को भुला चुका है और उसके पास मज़बूत अखिलेश का कोई विकल्प नहीं है. जबकि ज़मीनी हालात इसके उलट हैं."

फ़िरोज़ अहमद ने लिखा, "ये मुसलमानों को बेवकूफ़ बनाने की लड़ाई है. मुज़्ज़फ़्फ़ऱनगर को कैसे पचाए, उसकी लड़ाई. कीचड़ कर रखा है ताकि कमल खिल सके."

सलमान नौमानी लिखते हैं, "मुसलमानों ने सपा को 70 प्रतिशत वोट दिए. बदले में शामली और मुज़्ज़फ़्फ़ऱनगर के भयानक दंगे मिले. जेलों में बंद बेग़ुनाह मुसलमानों को छुड़वाने का वादा भी झूठा निकला. समाजवादी पार्टी बंटे या रहे, इससे मुसलमानों का कोई नुकसान नहीं."

अहमद क़बीर लिखते हैं, "अखिलेश से बेपनाह मुहब्बत के बावजूद एएमयू के छात्रों पर लाठीचार्ज, रिहाई मंच नेताओं के ख़िलाफ फ़र्ज़ी मुक़दमे, ये ऐसे कारण हैं, जो मुसलमान भूल नहीं पा रहे हैं."

अमीक़ जामेई ने लिखा, "इस टूट से समाजवादी विचारधारा मे आई सड़न दूर होगी और समाजवाद की नई बयार फूटेगी, जो संघवाद पर भारी पड़ सकती है, आज़ादी के बाद से हमारा सपना समाजवाद ही रहा, जिसे सच कर दिखाने की ज़रूरत है!"

आरिफ़ ख़ान ने लिखा, "इन सब के बीच अखिलेश एक मज़बूत व्यक्ति के रूप में उभरे हैं, ये सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया ड्रामा भी हो सकता है. मगर इससे समाजवादी पार्टी को अखिलेश के नेतृत्व में फायदा होने के आसार ज़्यादा हैं."

शाहनवाज़ अहमद लिखते हैं, "मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा. ज़मीनी हक़ीक़त जो जानते हैं कि शिवपाल और मुलायम अखिलेश को जीतने नहीं देंगे और उनके क़रीबी उनका साथ छोड़ देंगे. मुस्लिम वोट बीएसपी या कांग्रेस में चला जाए, तो अखिलेश के उम्मीदवार नहीं जीत सकेंगे."

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ज़ाकिर अली त्यागी लिखते हैं, "अखिलेश ने यूपी में जितने भी वादे किए थे उन पर खरे भी उतरे हैं, मुसलमानों को 18 फ़ीसदी आरक्षण वाले मुद्दे को छोड़कर."

मूसा क़ासमी लिखते हैं, "समाजवादी पार्टी की लड़ाई में मुसलमान अपनी मांग भूल गए हैं. आरक्षण सबसे बड़ा सवाल है. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में आईटीआई व स्कूल कॉलेज खोलने थे, क्या उन पर कुछ काम हुआ? पुलिस भर्ती में मुसलमानों को कितना कोटा दिया? इस पर कोई चर्चा नहीं. सब अखिलेश और मुलायम की जय-जयकार में लगे हैं."

वसीम त्यागी लिखते हैं, "अब अखिलेश सबसे मज़बूत बनकर उभरे हैं. मुलायम सिंह भी यही चाहते थे, उन्हें अपने बाद पार्टी का वारिस चाहिए था, जो अब निर्विरोध ही अखिलेश यादव हो जायेंगे, प्रदेश अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष तक सबकुछ अखिलेश के हाथ में होगा, पार्टी में अंदरूनी तौर पर उनसे कोई भिड़ना भी नहीं चाहेगा."

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