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![]() ![]() कांग्रेस भारत में कांग्रेस का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है. इसका गठन वर्ष 1885 में हुआ जिसका श्रेय एलन ऑक्टेवियन ह्यूम को जाता है. उन्हीं की अगुआई में बॉम्बे में पार्टी की पहली बैठक हुई थी.
हालाँकि व्योमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष बने. शुरुआती वर्षों में कांग्रेस पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के साथ मिल कर भारत की समस्याओं को दूर करने की कोशिश की और इसने प्रांतीय विधायिकाओं में हिस्सा भी लिया. लेकिन 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद पार्टी का रुख़ कड़ा हुआ और अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरु हए. इसी बीच महात्मा गाँधी भारत लौटे और उन्होंने ख़िलाफ़त आंदोलन शुरु किया.
इसको लेकर कांग्रेस में अंदरुनी मतभेद गहराए. चित्तरंजन दास, एनी बेसेंट, मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं ने अलग स्वराज पार्टी का गठन किया. वर्ष 1929 में ऐतिहासिक लाहौर सम्मेलन में जवाहर लाल नेहरू ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया. पहले विश्व युद्ध के बाद पार्टी में महात्मा गाँधी की भूमिका बढ़ी, हालाँकि वो आधिकारिक तौर पर इसके अध्यक्ष नहीं बने. लेकिन कहा जाता है कि सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से निष्कासित करने में उनकी मुख्य भूमिका थी. आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सबसे मज़बूत राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी. महात्मा गाँधी की हत्या और सरदार पटेल के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरु के करिश्माई नेतृत्व में पार्टी ने पहले संसदीय चुनावों में शानदार सफलता पाई और ये सिलसिला 1967 तक अनवरत चलता रहा.
पहले प्रधानमंत्री के रुप में नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को सरकार का मुख्य आधार बनाया जो कांग्रेस पार्टी की पहचान बनी. नेहरू की अगुआई में 1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अकेले दम पर बहुमत हासिल करने में सफलता पाई. वर्ष 1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में कमान सौंप गई लेकिन उनकी भी 1966 में ताशकंद में संदेहास्पद स्थितियों में मौत हो गई. इसके बाद पार्टी की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में इस बात को लेकर ज़ोरदार बहस हुई कि अध्यक्ष पद किसे सौंपा जाए. आख़िरकार मोरारजी देसाई को दरकिनार कर नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी के नाम पर सहमति बनी. पहली चुनौती आज़ाद भारत में कांग्रेस के वर्चस्व को पहली चुनौती मिली 1967 में जब विपक्ष संयुक्त विधायक दल के बैनर तले एकजुट हो गया और कई हिंदीभाषी राज्यों में कांग्रेस की हार हुई.
तब पार्टी के भीतर इंदिरा गांधी की क्षमता पर सवाल उठाए गए. पार्टी में विभाजन हो गया और के कामराज की अगुआई में कांग्रेस का एक अलग धड़ा कांग्रेस (ओ) के रुप में संगठित हुआ. बाद में कांग्रेस (ओ) का जनता पार्टी में विलय हो गया. चुनाव आयोग ने इंदिरा की अगुआई वाले धड़े को ही असली कांग्रेस पार्टी के रुप में मान्यता दी. इसी समय इंदिरा ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और 71 के चुनावों में जीत हासिल की. लेकिन उनकी सरकार के काम करने के तरीकों और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ विपक्ष एकजुट होता रहा. इंदिरा के बाद इसी बीच लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत को अदालत ने अवैध ठहरा दिया जिसके बाद देश भर में आंदोलन शुरु हुए और इंदिरा ने 1975 में आपात काल की घोषणा कर दी.
1977 में जब चुनाव हुए तो जनता पार्टी के हाथों कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा. हालाँकि दो वर्षों में ही ये सरकार गिर गई और 1980 में इंदिरा गांधी फिर सत्ता में लौटीं. वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में सिख विरोधी दंगे हुए. उनकी हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी ने पार्टी की कमान संभाली और 84 के चुनावों में पार्टी को भारी सफलता हासिल हुई. खिसकता जनाधार 1989 में जब चुनाव हुए तो जनता दल और भाजपा के गठजोड़ ने कांग्रेस को पराजित कर दिया. हालाँकि ये सरकार भी दो साल ही चल पाई. 1991 में चुनाव प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की भी बम विस्फोट में मौत हो गई और पार्टी की कमान पीवी नरसिंह राव के हाथों मे दी गई.
इस चुनाव में कांग्रेस को 232 सीटें मिलीं. इसके बाद कांग्रेस का जनाधार लगता गिरता गया. 1984 के चुनावों में कांग्रेस को 404 सीटें मिली थीं जो वर्ष 1999 में 114 रह गईं. हालाँकि 2004 के चुनावों में उसे 145 सीटें मिलीं पर उसका देशव्यापी असर जाता रहा. पार्टी ने सहयोगी दलों के सहारे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए का गठन किया और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. वर्ष 2004 में कांग्रेस की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने पर लगभग सहमति बन चुकी थी लेकिन विदेशी होने के नाम पर चले विरोध को देखते हुए उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. प्रस्तुति: बीबीसी संवाददाता आलोक कुमार |
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