प्यार के चक्कर में आप नई भाषा सीख भी सकते हैं!
- रिबेका लॉरेंस
- बीबीसी कल्चर

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कैरोल और चेडली
मोहब्बत वो जज़्बा है जो इंसान से कुछ भी करा सकता है. उसे किसी भी हद तक ले जा सकता है. जो काम ज़िंदगी में नहीं किया होता वो किसी के इश्क़ में पड़ कर किया जा सकता है.
बहुत से लोग एक दूसरे के इश्क़ में नई ज़बान तक सीख लेते हैं. ऐसी ही एक दिलचस्प शख़्सियत हैं जर्मनी की निवासी कैरोल जिन्हें ट्यूनीशिया के नागरिक चेडली से पहली नज़र में ही प्यार हो गया.
लेकिन आड़े आ रही थी दोनों की अलग अलग भाषा. दोनों ही एक दूसरे की ज़बान से नावाक़िफ़ थे. दोनों ने अपने इश्क़ की शुरूआत की एक नई भाषा सीखने के साथ. आज 46 साल हो गए हैं दोनों एक दूसरे के साथ हैं.
चेडली और कैरोल जैसी ही ना जाने कितनी और कहानियां हैं, जहां लोग एक दूसरे से मिलते हैं, उनकी संस्कृति, भाषा, रहन सहन बिल्कुल एक दूसरे से अलग होता है लेकिन वो सारी बंदिशों को तोड़ कर एक दूसरे के क़रीब आते हैं.
लेखिका लॉरेन कॉलिन्स का कहना है वो ख़ुद अमरीका में पली बढ़ी हैं. लेकिन उन्होंने शादी की है एक फ़्रेंच नागरिक से. ये दोनों ही एक दूसरे की ज़बान नहीं जानते थे. लिहाज़ा अंग्रेज़ी में ही बात करते थे.
हालांकि वो दोनों ही एक दूसरे के जज़्बात को समझ लेते थे, क्योंकि दोनों को एक दूसरे के दिल से मोहब्बत थी.
लेकिन फिर भी कॉलिन्स को इस रिश्ते में एक रूकावट नज़र आती थी.
उन्हें लगता था जैसे वो अपने पति को दस्ताने पहन कर छू रही हैं.
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लॉरेन कॉलिन्स
कॉलिन्स कहती हैं उन्होंने अपने पति के लिए फ़्रेंच ज़बान सीखी. उनके लिए ये तजुर्बा एक नई दुनिया में दाख़िल होने जैसे था.
वो कहती हैं कि एक नई भाषा सीखने की ललक बहुत से लोगों में हो सकती है. लेकिन ये आसान काम नहीं है. जब तक आप के अंदर कोई ऐसा जज़्बा ना आए जो नई भाषा सीखने का मक़सद आप में जगा दे. तब तक ये काम आसान नहीं हैं.
किसी भी ज़बान का अपना मिजाज होता है. उस ज़बान में उतार-चढ़ाव होते हैं.
उनके मुताबिक़ अपनी ज़ुबान को ढालना आसान नहीं होता. 2011 में एना इरविन ने भी फ़्रांस के एक शहरी क्रिस्टॉफ़ के साथ रहने का फ़ैसला किया था.
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एना कहती हैं कि उन्होंने फ़्रेंच भाषा सीखने के लिए लगातार उसी भाषा में लोगों से गुफ़्तगू की, ताकि वो ज़्यादा से ज़्यादा उस भाषा के साथ पहचान बना सकें. अपने पति के साथ भी वो उनकी ही ज़बान में बात करने की कोशिश करती थी. इसी कोशिश में वो दोनों एक दूसरे के और नज़दीक आ गए. लेकिन भाषा सीखने के लिए बहुत ज़्यादा सब्र की ज़रूरत होती है. ये दो-चार या चंद दिनों का काम नहीं है. नई भाषा सीखने के लिए खुद को उसमें डुबाना पड़ता है. उसे पूरी तरह से आत्मसात करना पड़ता है. जब आप कोई नई ज़बान सीखते हैं तो उसके साथ साथ आप उस भाषा से जुड़ी संस्कृति को भी सीखते हैं. क्योंकि भाषा और संस्कृति को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता.
अलग अलग संस्कृतियों का फ़र्क़ उस वक़्त साफ़ तौर पर देखने को मिलता है, जब दो अलग अलग भाषा के लोग एक दूसरे पर गुस्सा निकालते हैं. क्योंकि गुस्से में आपका अपने पर क़ाबू नहीं रहता.
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ऐसे में आपको अपने जज़्बात ज़ाहिर करने के लिए ज़्यादा असरदार शब्दों की ज़रूरत होती है. अमरीका की टेम्पल यूनिवर्सिटी की डॉ एनेटा पावलेंको का कहना है कि सारी दुनिया में लोगों को गुस्सा आता है. लेकिन हर ज़बान और संस्कृति के लोग इसका इज़हार अलग-अलग ढंग से करते हैं. साथ ही जब आप किसी दूसरी भाषा के पार्टनर के साथ गुस्सा करते हैं, तो, आप शब्दों का चयन सोच समझ कर करते हैं. इससे भी आप में भाषा की समझ पैदा होती है.
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एना इरविन और क्रिस्टॉफ़
नई भाषा सीखना, नया हुनर सीखने जैसा होता है. हालांकि लॉरेन ने अपने पति की मोहब्बत में फ़्रेंच ज़बान सीखनी शुरू की थी. लेकिन बाद में ये भाषा उनकी दूसरी मोहब्बत बन गई. लेकिन क्या नई भाषा हमारी सोच पर भी असर डालती है? हमारे सोचने के अंदाज़ को भी बदलती है? ये विचार करने वाली बात है.
बीसवीं शताब्दी के पचास और साठ के दशक में एक थ्योरी सामने आई थी.
'सेपियर वॉर्फ़ हाईपोथिसिस'. इस थ्योरी के मुताबिक़ इंसान अपने जज़्बे के इज़हार के लिए भाषा पर निर्भर करता है.
ये भाषा उस समाज की झलक भी पेश करती है जिस समाज से उस भाषा का संबंध होता है.
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भाषाविद नोम चोम्सकी की थ्योरी के मुताबिक़, बच्चे किसी भी भाषा को बहुत आसानी से सीख सकते हैं. वो जो शब्द अपने आसपास सुनते हैं उसी को सीख लेते हैं. 1994 में स्टीवेन पिंकर ने चोम्सकी के ख़्याल को ही आगे बढ़ाते हुए कहा कि भाषा जन्मजात होती है. वो बिना सीखे आसपास के माहौल से ही आ जाती है.
डॉ एनेटा पावलेंको का कहना है कि बहुत से लोग कई ज़बानें बोलने में महारत रखते हैं. लेकिन जो भाषा वो अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोलते हैं, उसका असर उनके किरदार पर ज़्यादा होता है. वो सोचते भी उसी भाषा में हैं और लगाव भी उसी भाषा से ज़्यादा हो जाता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वो अपनी पहली ज़बान को भूल जाते हैं या छोड़ देते हैं. अपने जिस भी भाव को जिस भी भाषा में ज़्यादा बेहतर तरीक़े से कह पाते हैं उसी भाषा का वो अपनी सुविधा अनुसार इस्तेमाल कर लेते हैं.
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हम बहुत मर्ताबा अपनी खुशी के लिए बहुत से काम करते हैं लेकिन जब किसी और कि खुशी के लिए कोई काम करते हैं तो उसे करने में ज़्यादा लुत्फ़ आता है. जैसे किसी के प्यार में कोई नई ज़बान सीखना. इससे ना सिर्फ़ एक दूसरे के लिए मोहब्बत की इंतहा का अंदाज़ा होता है, बल्कि आप को भी बहुत सी नई चीज़ें पता चलती हैं. आपके सामने भी एक नई दुनिया के दरवाज़े खुलते हैं.
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