अपने ही बदन की गर्मी से शिकारियों से बचेंगे जानवर?
- ज़ोई कॉमियर
- बीबीसी अर्थ

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अवैध शिकार की वजह से दुनिया भर में कई जीव ख़ात्मे की कगार पर हैं. क्या इन जीवों को तकनीक की मदद से बचाया जा सकता है?
आज धरती के जलवायु परिवर्तन की वजह से आर्कटिक में बर्फ़ पिघल रही है, तो कैलिफ़ोर्निया के जंगलों में आग धधक रही है.
इंडोनेशिया से लेकर ब्राज़ील तक बरसाती जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है. वहीं, प्लास्टिक के प्रदूषण से समंदर का दम घुट रहा है.
लेकिन, दुनिया के जो जीव हमेशा के लिए मिट जाने के ख़तरे से दो-चार हैं, उन्हें ख़तरा इंसान के लालच से है.
हाथी के दांत, बाघ की हड्डियां, गैंडे के सींग की मांग प्रतिबंधों के बावजूद बढ़ती जा रही है. इसके अलावा दुर्लभ जानवरों को घर में पालने का रईसाना शौक़ भी इन जानवरों पर भारी पड़ रहा है.
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अफ्रीका में चिंपांजी के शरीर के अंगों की मांग की वजह से इसका शिकार हो रहा है. नाइजीरिया में एक चिंपांजी का सिर 100 डॉलर तक में बिकता है.
चिंपांजी के मांस की मांग भी बढ़ती जा रही है. नतीजा ये है कि पश्चिमी अफ्रीका में चिंपांजी हमेशा के लिए मिट जाने का ख़तरा झेल रहे हैं.
पर्यावरण जांच एजेंसी यानी ईआईए से जुड़ी श्रुति सुरेश कहती हैं कि इन जानवरों के शिकार के पीछे उन लोगों का लालच है, जो ऐसी दुर्लभ दवाओं के तजुर्बे करने पर आमादा है.
और जब ऐसी चीज़ों की मांग बढ़ती है, तो अवैध शिकारियों को इस में मौक़ा दिखाई देता है. दुनिया में शिकारियों के संगठित अपराधी गिरोह, अवैध शिकार कर रहे हैं.
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गैंडे का शिकार 7000 प्रतिशत बढ़ा
अब गैंडे का एक किलो का सींग 50 हज़ार पाउंड तक में बिकता है, तो इसका अवैध शिकार रोका नहीं जा सकता.
नतीजा ये है कि 2007 से 2014 के दौरान दक्षिण अफ्रीका में गैंडे का अवैध शिकार 7000 प्रतिशत बढ़ गया.
2013 में दक्षिण अफ्रीका में 13 गैंडे मारे गए थे. वहीं 2014 में ये संख्या बढ़कर 1215 तक पहुंच गई. हाल ही में आख़िरी उत्तरी सफ़ेद गैंडे का आख़िरी नर मर गया. यानी तकनीकी रूप से ये प्रजाति हमेशा के लिए विलुप्त हो गई है.
बाक़ी प्रजातियों के क़रीब 20 हज़ार गैंडे अभी अफ्रीका में होंगे. इनके अलावा काली प्रजाति के क़रीब पांच हज़ार गैंडे अफ्रीका में बसते हैं.
लेकिन, जिस तरह चीन में इनके सींगों की मांग है, उससे इनका अवैध शिकार रोकना कमोबेश नामुमकिन सा है. और शिकार इसी रफ़्तार से होता रहा, तो ये नस्ल भी दुनिया से हमेशा की तरह मिट जाएगी.
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शराब में बाघ की हड्डियां डालने का चलन
हाल ये है कि ये जानवर चिड़ियाघर तक में महफ़ूज़ नहीं हैं. पिछले साल पेरिस के चिड़िया घर में हथियारबंद लोगों ने एक गैंडे को गोली मार दी थी. उन्होंने गैंडे को मारकर आरी से उसका सींग काट लिया था.
जब इतनी सुरक्षा के बावजूद पेरिस के चिड़ियाघर में गैंडा मारा जा सकता है, तो फिर इन्हें जंगल में कैसे बचाया जा सकेगा?
हाल ही में यूरोपीय देश चेक रिपब्लिक में बाघ पालने के एक फार्म का पता चला है. इसका संबंध वियतनाम के जानवरों के अवैध कारोबार के नेटवर्क से था.
इस टाइगर फार्म से बाघों के अंगों की आपूर्ति चीन को की जाती थी. चीन में बाघ की हड्डियां डालकर शराब पीने का चलन है.
हाल ये है कि चीन में एक ग्राम वज़न की बाघ की हड्डी 50 पाउंड तक में बिकती है. एक पंजे के लिए 90 पाउंड और बाघ की खाल 3500 पाउंड तक में बिक जाती है.
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दुनिया भर के जंगलों में सिर्फ 3,500 बाघ
बाघों को अवैध रूप से फार्म में पाला जा रहा था, ये बात कम चौंकाने वाली लगे, तो ये जान लीजिए कि चीन, लाओस, वियतनाम और थाईलैंड में क़रीब 8,000 बाघ ऐसे ही बंधक बनाकर पाले जा रहे हैं.
जबकि, दुनिया भर के जंगलों में 3,500 बाघ ही बचे होंगे. इन टाइगर फार्म की वजह से बाघ के अंगों की तस्करी को बढ़ावा मिलता है.
आज की तारीख में भी बाघों को जंगल में शिकार करके उसके अंग हासिल करना सस्ता और आसान है. न कि, उन्हें किसी फार्म में पालना.
आज तो दक्षिण अमरीका और अफ्रीका के जंगलों में जगुआर और शेरों का भी शिकार हो रहा है, ताकि चीन में इनके अंगों को बेचा जा सके. इनकी हड्डियों की चीन में बहुत मांग है.
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और अगर इस सदमे से उबर चुके हों, तो अक्टूबर 2018 में चीन ने दुनिया को एक और सदमा दे दिया.
वहां की सरकार ने एलान किया कि बाघ की हड्डियों और गैंडे की सींग पर लगी पाबंदी वो हटा लेगी.
श्रुति सुरेश कहती है कि चीन के इस क़दम से इन जानवरों के शिकार में और भी तेज़ी आएगी. चीन का ये क़दम बाघ और गैंडे के ताबूत में आख़िरी कील जैसा होगा.
8000 बाघ दुनिया भर में पाले जा रहे हैं, ताकि उन्हें काटकर उनके अंग बेचे जा सकें.
वहीं, दुनिया भर में 1200 गैंडे उनके सीगों के लिए मार दिए गए. तो, दुनिया भर में क़रीब 50 हज़ार हाथियों का शिकार उनके दांत के लिए होता है.
इतनी बड़ी तादाद में हो रहे अवैध शिकार को रोकना वन संरक्षण में जुटे लोगों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.
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शिकार रोकने में विज्ञान की मदद
जब जानवरों की खाल, सींग और हड्डियां मिलती हैं, तो ये पता लगाना मुश्किल होता है कि वो कहां से आई हैं. हर बाघ की ख़ास पट्टी भी उनकी पहचान नहीं बता पाती.
भारत में पग मार्क की मदद से बाघों का एक डेटा तैयार किया गया है. इससे अगर किसी बाघ का शिकार होता है, तो पता चल जाता है कि उसे किस इलाक़े के जंगल में मारा गया.
श्रुति सुरेश कहती हैं कि अवैध शिकार रोकने में ये आंकड़ा काफ़ी मददगार होगा. अब दुनिया भर में ऐसा डेटाबेस बनाने की मांग तेज़ हो गई है.
इसके अलावा डीएनए की मदद से भी जानवरों के इलाक़े का पता लगाया जा सकता है. 2015 में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ज़ब्त हाथी दांत की पड़ताल से ये पता लगाया था कि उन्हें तंजानिया के जंगलों में मारा गया था.
इसके बाद तंज़ानिया पर हाथियों का अवैध शिकार रोकने का दबाव बनाया गया. तंज़ानिया में इतने बड़े पैमाने पर हाथियों का शिकार हो रहा था कि 2009 से 2014 के बीच यहां हाथियों की आबादी 60 प्रतिशत घट गई थी.
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जानवरों के सिंथेटिक अंग
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर फ्रित्ज़ वोलरैथ ने जानवरों का शिकार रोकने के लिए एक नया तरीक़ा सुझाया है. वो कहते हैं कि जानवरों के कृत्रिम अंग विकसित करके इनका शिकार रोका जा सकता है.
इसलिए उन्होंने हाथी दांत की नक़ली कृति विकसित की है. प्रोफ़ेसर वोलरैथ कहते है कि हाथी दांत को कोलैजन और खनिज की मदद से बनाया जा सकता है.
चीन में हाथी दांत पर नक़्क़ाशी करने वाले हाथियों के शिकार पर रोक का विरोध करते हैं. वो इसके लिए परंपरा का हवाला देते हैं कि 6000 साल से ये काम करते आ रहे हैं.
प्रोफ़ेसर वोलरैथ कहते हैं कि हाथी दांत पर नक़्क़ाशी करने के लिए ज़रूरी नहीं कि असली हाथी को मार कर उसके दांत निकाले जाएं.
पेंबिएंट नाम की कंपनी गैंडे के नक़ली सीग को विकसित कर रही है. कंपनी का इरादा 2022 तक गैंडे के इस सींग को बाज़ार में उतारने का है.
कैमरों से निगरानी
जब तक बनावटी अंग बाज़ार में आएंगे, तब तक तो जानवरों का शिकार रोकने के दूसरे नुस्खों पर अमल ज़रूरी होगा.
लिवरपूल की जॉन मूर्स यूनिवर्सिटी की वैज्ञानिक क्लेयर बर्क इस काम में जुटी हैं. वो जानवरों के शरीर से निकलनेवाली गर्मी की मदद से उनकी निगरानी के तरीक़े खोज रही हैं.
ऐसे कैमरे विकसित किए जा रहे हैं, जो इन जानवरों के शरीर के तापमान की मदद से उनका पीछा करेंगे और किसी ख़तरे की सूरत में अलार्म बजाएंगे.
क्लेयर ने ज़ूनिवर्स नाम का प्रोजेक्ट चला रखा है, जो तकनीक की मदद से जानवरों की हिफ़ाज़त का काम कर रहा है. तस्वीरों की मदद से कैमरों में आंकड़े डाले जा रहे हैं, ताकि उनका शिकार होने से बचाया जा सके.
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असल में हर जानवर की अपनी पहचान होती है. उसके शरीर का तापमान अलग होता है. जैसे इंसानों के फिंगरप्रिंट होते हैं.
जंगलों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग इन जानवरों को पहचान कर बताते हैं. फिर इनके आंकड़े कैमरों में डालकर उन जानवरों की निगरानी की जाती है.
असली चुनौती है, शिकारियों के जाल से जानवरों को बचाना.
अमरीका की सदर्न कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस सोसाइटी से जुड़े वैज्ञानिक इस काम में मदद के तरीक़े मशीन के सहयोग से निकालने में जुटे हैं.
यहां के प्रोफ़ेसर मिलिंद तांबे ने 2013 में युगांडा के वन संरक्षण अधिकारियों के साथ मिलकर क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में जानवरों की निगरानी का काम शुरू किया था.
इनमें शिकार किए गए जानवरों के अंगों, शिकारियों के जाल वग़ैरह के आंकड़े जुटाकर उनकी मदद से ऐसे ठिकानों का पता लगाया गया, जहां शिकार ज़्यादा होता देखा गया.
इस मॉडल से ये अंदाज़ा लगाया जाता है कि कहां किसी जानवर का अगला शिकार हो सकता है.
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मिलिंद तांबे अब कई वन संरक्षण कंपनियों की मदद से इस मॉडल को और बेहतर बनाने में जुटे हैं. अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमरीका के जंगलों की निगरानी में बहुत ही कम पैसे ख़र्च किए जाते हैं.
फंड की भारी कमी होती है. ऐसे में मिलिंद तांबे और इनके जैसे दूसरे वैज्ञानिकों के स्मार्ट प्रोग्राम, वन्य जीव संरक्षण के काम में काफ़ी मददगार होते हैं. जहां, तकनीक, जानवरों की निगरानी और उनकी हिफ़ाज़त के काम आती है.
मिलिद तांबे कहते हैं कि उनके विकसित किए हुए प्रोजेक्ट का इस्तेमाल वो लोग कर रहे हैं, जो आराम की ज़िंदगी भी जी सकते थे. लेकिन, वो जान की बाज़ी लगाकर जानवरों को महफ़ूज़ रखने का काम कर रहे हैं.