कोमा में धड़कते 'लाशों' के दिल
- ज़ारिया गॉरवेट
- बीबीसी फ़्यूचर

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कोमा में चलने वाली धड़कन एक दिलासा कही जाती है.
आपने बहुत से लोगों को कहते सुना होगा कि फलां शख़्स कोमा में चला गया है. आख़िर कोमा में जाने का मतलब होता क्या है? वो क्या कहना चाहते हैं.
दरअसल कोमा एक लंबी बेहोशी की हालत को कहा जाता है. इस हालत में मरीज़ का दिमाग़ सो जाता है. पर शरीर पूरी तरह से एक सामान्य इंसान की तरह काम करता रहता है. लेकिन ऐसे मरीज़ों को क़ानूनी तौर पर ज़िंदा नहीं माना जाता. बड़े पैमाने पर डॉक्टरों की भी यही राय है.
जब तक तकनीक ने तरक़्की नहीं की थी, ऐसे कोमा में चले जाने वाले मरीज़ों को बहुत दिनों तक रख पाना आसान नहीं था. लिहाज़ा जब उनके ठीक होने की कोई आस बाक़ी नहीं रहती थी तो उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता था.
जब तक नई तकनीक अमल में नहीं आई थी, तब तक ये बताना आसान नहीं था कि मरीज़ मर चुका है. उन्नीसवीं सदी में फ्रांस में किसी की मौत हुई है या नहीं, ये पता लगाने के तीस तरीक़े थे. इनके ज़रिए मरीज़ के परिजनों को बताया जाता था कि उनका मरीज़ अब दुनिया में नहीं रहा.
सबसे आसान और भरोसेमंद तरीक़ा था कि किसी मरीज़ को उसके नाम से चीख कर तीन बार पुकारा जाता था. अगर मरीज़ नाम सुनने पर हरकत करता था तो डॉक्टर उसका आगे का इलाज करते थे. वरना उसे मुर्दा घोषित कर दिया जाता था.
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कोमा वक्त से पहले अंत्येष्टि रोकने का जरिया भी कहा जाता है.
नई थ्योरी ने बदले मानक
1846 में पेरिस की एकेडमी ऑफ साइंस ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसमें डॉक्टरों को ऐसे तरीके सुझाने थे जिनसे कोमा में गए मरीज़ों को वक्त से पहले अंतिम संस्कार से बचाया जा सके.
यूजीन बुशे नाम के एक डॉक्टर ने नए तरह के स्टेथोस्कॉप का इस्तेमाल करने की सलाह दी. उनका कहना था कि जब तक किसी के दिल की धड़कन बंद ना हो जाए तब तक उसे मृत नहीं माना जा सकता. अगर दो मिनट तक मरीज़ की धड़कन सुनाई ना दे तब ऐसे मरीज़ को बेधड़क सुपुर्दे-ख़ाक कर सकते हैं.
1920 में एक और थियोरी सामने आई. न्यूयॉर्क के इलेक्ट्रिकल इंजीनियर विलियम कोवेनहॉवेन यह पता लगा रहे थे कि आख़िर, बिजली के झटके से किसी की मौत क्यों हो जाती है?
विलियम का मानना था कि अगर कोई बिजली के झटके से मर सकता है तो उसे ज़िंदा भी किया जा सकता है. अगले पचास साल विलियम ने ऐसी मशीन बनाने में लगा दिए, जिससे किसी को बिजली के झटके देकर ज़िंदा किया जा सके.
हालांकि विलियम की मेहनत रंग लगाई और उन्होंने डिफ्राब्रिलेटर नाम की मशीन का अविष्कार किया. यह मशीन आज लोगों की जान बचाने के बहुत काम आती है. उसके बाद तो मेडिकल की दुनिया में बहुत सारी मशीनें बनाई गईं, जिनसे इंसान को बचाया जा सके. वेंटिलेटर, कैथेटर, डायलिसिस मशीन जैसी तमाम चीज़ों से किसी बीमार को बचाने की कोशिश की जाने लगी.
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दिमाग़ी रूप से मृत लोगों के लिए कोमा.
मगर डॉक्टरों के बीच कोमा को लेकर मतभेद बने रहे. कई बार डॉक्टरों को लगता था कि कुछ मरीज़ कोमा से आगे के हालात में पहुंच रहे हैं. ईसीजी मशीन के ज़रिए पता चलने लगा कि आख़िर किसी के दिमाग़ में कोई हरकत हो रही है या नहीं. फ्रांस में इसे 'कोमा डिपासे' का नाम दिया गया. इस स्थिति में मरीज़ का दिमाग पूरी तरह से काम करना बंद कर देता है. लेकिन शरीर के बाक़ी अंग अपना काम करते रहते हैं.
इस तरह के मरीज़ों का ये नया दर्जा था, जिसने पांच हज़ार साल की मेडिकल खोज को पूरी तरह से पलट कर रख दिया. और मौत की पहचान को लेकर कई नए सवाल खड़े हो गए. साथ ही उसके नैतिक और दार्शनिक पहलू भी सामने आए.
कोमा के मरीज़ में ठीक होने की पूरी गुंजाइश होती है. लेकिन डीप कोमा में मरीज़ का दिमाग लंबे समय के लिए सो जाता है. ऐसे में दिमाग़ में खराबी बढ़ने लगती है. वो होश में आने के बाद भी अपनी पहले जैसे ज़िंदगी नहीं गुज़ार सकते. जबकि सिर्फ कोमा में जाने वाला मरीज़ ठीक होने पर बीमारी से पहले की तरह अपनी ज़िंदगी जी सकता है.
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डीप कोमा में मरीज़ का दिमाग लंबे समय के लिए सो जाता है.
इंसान सांस लेना बंद कर दे, उसकी दिल की धड़कन रुक जाए तो मान लिया जाता है कि इंसान की मौत हो गई. ये मौत की मज़हबी या दार्शनिक परिभाषा है.
साइंस के मुताबिक़ एक ही झटके में किसी भी जीव के सभी हिस्से काम करना बंद नहीं करते. इसीलिए इसे मौत नहीं कहा जा सकता. साइंस के मुताबिक़ मौत के कई दिन बाद तक त्वचा और दिमाग़ की कोशिकाएं ज़िंदा रहती हैं. यहां तक कि आखरी सांस लेने के लंबे समय के बाद भी हमारे जींस काम करते रहते हैं.
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हमारे शरीर की कुल ऑक्सीज़न की ज़रूरत का एक चौथाई हमारे दिमाग़ को चाहिए
बहुत मर्तबा कुछ दवाएं और बीमारियां भी ऐसी होती हैं जिनकी वजह से दिमाग़ काम करना बंद कर देता है. और मान लिया जाता है कि मरीज़ की मौत हो गई है. लेकिन हो सकता है कि मरीज़ कुछ वक़्त के बाद होश में आ जाए. ऐसा ही एक वाक़िया 2009 में न्यूयॉर्क में देखने को मिला था.
एक मरीज़ को दवाओं के ज़रिए बेहोश किया गया. जब काफ़ी देर तक वो होश में नहीं आई तो मान लिया गाय कि वो मर चुकी है. लेकिन दूसरे दिन जब ऑपरेशन रूम में उसके अंग निकालने के लिए ले जाया गया तो वो होश में आ गई. इस घटना के बाद एक बड़ी मीटिंग की गई और गाइड लाइन तैयार की गई ताकि भविष्य में ऐसी गलती ना हो.
अगर किसी मरीज़ का दिमाग काम करना बंद कर दे और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद बाक़ी ना रहे तो इलाज वहीं रोक दिया जाना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है. मेडिकल साइंस ने आज इतनी तरक्की कर ली है कि एक इंसान का कोई अंग दूसरे इंसान में लगा कर उसे एक नई जिंदगी दी जा सकती है. इसी मकसद से दिल की धड़कन वाले शवों के अंग निकाल कर रख लिए जाते हैं.
बहुत से डॉक्टरों को ब्रेन डेड की परिभाषा पर ऐतराज़ रहा है. जैसे अमरीका के एलन श्योमॉन. उन्होंने एक-दो नहीं 172 ऐसी मिसालें दी थीं, जिसमें इंसान के दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया था, मगर उनके दूसरे अंग काम कर रहे थे. ऐसे लोगों को मुर्दा तो नहीं घोषित किया जा सकता. कई बार दवाओं के असर से दिमाग़ काम करना बंद कर देता है. मगर शरीर के दूसरे अंग काम करते रहते हैं. मसलन दिल धड़कता रहता है.
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बहुत मर्तबा कुछ दवाएं और बीमारियां भी ऐसी होती हैं जिनकी वजह से दिमाग़ काम करना बंद कर देता है
हार्ट ट्रांस्पलांट के लिए ऐसे मरीज़ों का दिल सबसे ज़्यादा काम में आता है. क्योंकि दिमाग़ी तौर पर इनकी मौत हो चुकी होती है. लेकिन दिल काम करता रहता है इसीलिए किसी ज़रूरतमंद को इनका दिल दे दिया जाता है.
जब तक मरीज़ के दिल की धड़कन काम कर रही है तो, इसका मतलब है कि उसके बाक़ी अंगों को ऑक्सीजन और ख़ून दोनों मिल रहा है. इसलिए इन अंगों को सुरक्षित रखा जा सकता है. हालांकि अंग दान के लिए मरीज़ के परिजनों को समझाना आसान नहीं होता है लेकिन अगर एक बार काग़ज़ी कार्रवाई हो जाती है तो फिर अंगदान करने वाले मरीज़ की देखभाल भी खास तौर पर की जाती है. क्योंकि वो और कई ज़िंदगियों को बचाने वाला बन जाता है.
1968 में हार्वर्ड के डॉक्टरों ने मिलकर एक परिभाषा तय की. जिसके तहत दुनिया भर के डॉक्टरों को कुछ पैमाने बताए गए, जिन्हें परखने के बाद ही किसी के बारे में कहा जा सकता है कि उसकी जान जा चुकी है. अगर इस पैमाने पर उस महिला को कसा गया होता, जिसे मुर्दा कहने के बाद 2009 में वो जी उठी थी, तो, शायद उस मरा हुआ मानने की ग़लती नहीं होती.
बहरहाल मौत को एक घटना नहीं कहा जा सकता. ये एक प्रक्रिया है. मौत आखिर है क्या हज़ारों साल बीत गए इस सवाल का जवाब ढूंढने में. लेकिन आज तक तसल्लीबख़्श जवाब नहीं मिला है. आगे चलकर इंसान की नई नस्लें इसका जवाब तलाश पाएंगी, कहना मुश्किल है. लेकिन अगर आपके अंगदान से किसी और की ज़िंदगा का कारवां चल सकता है तो अंगदान ज़रूर करना चाहिए.
क्योंकि किसी शायर ने कहा है- 'मौत इक ज़िंदगी का वक़्फ़ा है, यानी आगे चलेंगे दम ले के.'
(अंग्रेजी में मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, जो बीबीसी फ्यूचर पर उपलब्ध है.)
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