हादसे के वक्त क्या करें, क्या न करें?
- ज़ारिया गोरवेट
- बीबीसी फ़्यूचर

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जो लोग विमान में सीट बेल्ट नहीं लगाए हुए होते हैं, विमान हादसे में उनके मरने का ख़तरा चार गुना बढ़ जाता है
हादसा कभी भी, कहीं भी, किसी के भी साथ हो सकता है. लेकिन हादसे में जान बच जाए तो ये करिश्मा कहलाता है.
ये करिश्मा बहुतों के साथ हो सकता है, अगर थोड़ी समझदारी के साथ काम लिया जाए.
जानकारों का कहना है कि मुसीबत में फंसने पर हम अक्सर ग़लत फ़ैसला कर बैठते हैं. फिर ख़ुद को ही नुक़सान पहुंचा लेते हैं.
मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक़ हम ऐसा तनाव और दबाव में आने की वजह से करते हैं. मुश्किल घड़ी में सही फ़ैसला लेने के लिए दिमाग़ी सुकून ज़रूरी है. अगर हड़बड़ाएंगे तो फ़ैसला ग़लत होने की गुंजाइश बढ़ जाती है.
हादसों में कुछ लोगों की जान सही फ़ैसलों और फ़ौरन एक्शन लेने की वजह से बचती है.
ब्रिटेन की पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक जॉन लेक का कहना है कि मुश्किल घड़ी में 80 से 90 फ़ीसद लोग गड़बड़ी करते हैं. वो समझ ही नहीं पाते कि मुश्किल वक़्त में वो क्या करें. लोगों को हादसों के दौरान बचने की जो ट्रेनिंग दी जाती है, उसे भी वो भूल जाते हैं.
हादसा होने पर सबसे ज़्यादा बदहवास मुसाफ़िर होते हैं. वो ऐसी हरकतें कर बैठते हैं जिससे मुश्किल और बढ़ जाती है.
साल के लिए साल 2011 में जापान में आए ज़लज़ले की तस्वीरें देखिए. अंदाज़ा हो जाएगा कि कैसे लोगों ने ख़ुद अपनी बेवक़ूफ़ी से जान मुसीबत में डाल दी थी. लोग वहां से निकलने के बजाए अपना सामान उठाने में मसरूफ़ हो गए.
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2011 में जापान में भूकंप के दौरान लोग शराब की बोतलें बचाने सुपरमार्केट में घुसे और अपनी जान ख़तरे में डाली
इसी तरह जब अमरीका में डेनवर एयरलाइंस के जहाज़ में आग लगी तो मुसफ़िरों ने जल्दी से जल्दी निकलने के बजाए सेल्फ़ी लेनी शुरू कर दी. बहुत से लोग वहीं रुक कर आग की लपटों देखने लगे.
शांत रखें दिमाग
इमरजेंसी की हालत में यूं भी दिमाग़ काम करना बंद कर देता है. कुछ समझ ही नहीं आता क्या करें, क्या ना करें.
जानकारों का कहना है कि डर और हैरानी की हालत में हमारा शरीर अक्सर काम करना बंद कर देता है.
मांसपेशियों में तनाव पैदा हो जाता है. लेकिन दिमाग का एक हिस्सा हमें उसी जगह पर चिपके रहने का संदेश देता रहता है. अगर हम दिमाग़ को शांत रखेंगे तो हो सकता है कुछ बेहतर हल निकल आए.
90 के दशक में जब अमरीका ने इराक़ पर हमला किया, तो इसराइल को डर था कि इराक़ उस पर हमला कर सकता है. मिसाइलें दागी जा सकती हैं. केमिकल अटैक हो सकता है. हालात से निपटने के लिए इसराइल ने अपनी जनता को इसके लिए पहले ही अलर्ट कर दिया था.
कहा गया था कि जैसे ही अलार्म बजे तो सभी लोग अपने घरों में सीलबंद कमरों में ख़ुद को महफ़ूज़ कर लें. साथ ही गैस मास्क लगाने की हिदायत भी दी गई.
इन हिदायतों के बावजूद 234 लोग अस्पताल में भर्ती करने पड़े. वजह ये थी कि कई बार तो गलती से अलार्म बजने पर ही भगदड़ जैसे हालात पैदा हो गए. लोगों को चोट आई. 11 लोगों की मौत इसलिए हो गई क्योंकि कुछ लोग मास्क का फिल्टर खोलना भूल गए.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन सभी के लिए जो ख़तरे वाली बात थी, उसकी वजह से वो तनाव में आ गए और जो भी सिखाया गया था वो भूल गए.
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पिछले साल दुबई में एक विमान हादसे में आग के बीच भी अपना सामान लेने के लिए रुके रहे थे
जितनी तेज़ी से हमारा दिमाग़ काम करता है उससे कहीं ज़्यादा तेज़ी से तबाही अपने पैर फैलाती है. हवाई जहाज़ बनाने वाली कंपनियों का दावा है कि इमरजेंसी में किसी भी विमान को डेढ़ मिनट में ख़ाली कराया जा सकता है. लेकिन अक्सर मुसीबत आने पर यात्री अपनी सीट बेल्ट से ही जूझते रह जाते हैं. जिसकी वजह से नुक़सान ज़्यादा होता है.
डोपामाइल और कॉर्टिसॉल का खेल
ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक सरिता रॉबिनसन का कहना है कि नई जानकारी को एक सूत्र में बांधने के लिए हमारे दिमाग की क्षमता बहुत कम होती है. मुश्किल हालात में हमें शांत करने के लिए हमारा दिमाग़ 'डोपामाइन' नाम का हारमोन छोड़ता है. इससे हमें अच्छा एहसास होता है.
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किग्ज़ क्रॉस अंडरग्राउंड स्टेशन में 1987 में आग में 31 लोगों की मौत हो गई थी
लेकिन डोपामाइन हार्मोन ज़्यादा होने की वजह से स्ट्रेस केमिकल 'कॉर्टिसॉल' बढ़ने लगता है. ये दिमाग़ पर दबाव बनाता है और वो कुछ देर के लिए ठिठक जाता है. किसी हादसे की सूरत में जब हमें फौरी फ़ैसले लेने की ज़रूरत होती है, हम डोपामाइन और कॉर्टिसॉल के असर से कुछ सोच ही नहीं पाते. इन हालात में दिमाग़ गड़बड़ा जाता है और ग़लत फ़ैसले करने लगता है.
हवाई यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जेम्स गॉफ सालों से सुनामी वाले इलाक़े में लोगों में जागरूकता फ़ैलाने का काम कर रहे हैं. वो कहते हैं कि सुनामी के वक़्त बहुत से लोगों की जान इसलिए चली गई क्योंकि वो तुरंत वहां से भागने के बजाए अपना वॉलेट लेने पहुंच गए.
लोगों का ये रवैया उनके लिए हैरान करने वाला था. लेकिन ये एक मानसिकता है. मुश्किल वक़्त में भी हम कोशिश करते हैं कि हमारे पास वो चीज़ मौजूद रहे जो हमें मानसिक रूप से मज़बूती का एहसास कराती रहे. पैसा हमें वो एहसास दिलाता है. इसीलिए जान जोखिम में डालकर भी हम वॉलेट लेने दौड़ पड़ते हैं. ऐसा कोई भी सोच समझकर नहीं करता है.
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वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद ऊपरी मंज़िलों पर लोगों को पांच मिनट इंतज़ार के बाद निकाला गया
बहुत बार हम हालात की गंभीरता को भी ठीक से समझ नहीं पाते. या ये भी कह सकते हैं कि हम कुछ ज़्यादा बहादुर बनने की कोशिश करते हैं.
मिसाल के लिए 2004 में आई सुनामी के वक़्त वहां से हटने के बजाए लोग लहरों की ऊंचाई देखने की चाह में वहीं खड़े थे. ऐसा हर हादसे के वक़्त होता है.
क़रीब 50 फ़ीसद लोग खड़े होकर हादसे को होते हुए देखना पसंद करते हैं. वो ये भूल जाते हैं कि ऐसा करना उनके लिए कितना ख़तरनाक हो सकता है.
हादसों से बचने की तैयारियां होना, मुश्किल वक़्त में समझदारी से काम लेना वग़ैहर ख़ुद को बचाने के कुछ ज़रूरी तरीक़े हो सकते हैं. लेकिन इस सबके बावजूद क़िस्मत भी कोई चीज़ होती है. अगर एहतियाती क़दम उठाए बग़ैर किसी की जान बच जाती है तो ये उसकी क़िस्मत है. वो कहते हैं ना जाखो राखे साईयां मार सके ना कोई.
हम तो आपको यही सलाह देंगे कि अगर कभी भी आप किसी मुसीबत में फंसें तो सबसे पहले सिर्फ़ अपनी जान बचाने की कोशिश करें.
अपने सामान की फ़िक्र ना करें. और हां दिमाग़ को हर हाल में सुकून में रखे. अगर दिमाग़ का सुकून छिना, तो, वो आपका ज़िंदगी भर का सुकून गड़बड़ा देगा.
(बीबीसी फ्यूचर का मूल अंग्रज़ी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)