क्यों अफ़वाहों पर यकीन कर लेते हैं लोग?

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'दुनिया का ख़ात्मा होने वाला है'
'बीमारियों का टीका लगाना बड़े देशों की साज़िश है हमारी सेहत के ख़िलाफ़'
'ग्लोबल वॉर्मिंग महज़ एक अफ़वाह है'
'चांद पर इंसान के उतरने को लेकर नासा ने दुनिया से झूठ बोला था'
'मशहूर गायक सर पॉल मैक्कार्टिनी तो कब के मर गए थे. बहुत दिनों तक उनके हमशक्ल का इस्तेमाल हुआ'
'मैरी मैग्डालेन ईसा मसीह से ब्याही हुई थीं'.
ये और ऐसी ही और भी न जाने कितनी अटकलें, अफ़वाहें, साज़िशों की थ्योरी दुनिया भर में कही-सुनी और मानी जाती हैं.
आज सोशल मीडिया के दौर में तो ऐसी अफ़वाहों के फैलने और लोगों के बीच पैठ बनाने की रफ़्तार रॉकेट से भी तेज़ हो गई है. लोग, व्हाट्सऐप, ट्विटर और फ़ेसबुक पर ऐसी ही साज़िशों वाली बातें एक-दूसरे से शेयर करते हैं.
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अफ़वाहों पर यक़ीन करने की वजह
ऐसी ही अफ़वाहों पर यक़ीन की वजह से अमरीका में साठ के दशक में कमोबेश ख़त्म हो गई खसरे की बीमारी फिर से लौट आई.
क्योंकि कई लोगों ने इसका टीका लगवाने से मना कर दिया. उनका मानना था टीका लगाना दवा कंपनियों की साज़िश है. इससे उन्हें नुक़सान होगा.
नतीजा ये कि तीस साल पहले ख़त्म हो गई खसरे की बीमारी के 58 नए मरीज़ 2017 में अमरीका में सामने आए हैं.
इसी तरह टीकों को लेकर भ्रम और शक की वजह से ऑस्ट्रेलिया में 23 लोगों की मौत हो चुकी है.
इन लोगों की वजह से ख़त्म हो चुकी बीमारियों के फिर से गंभीर रूप में सामने आने का डर है. बहुत से लोगों को ये यक़ीन नहीं कि धरती गर्म हो रही है.
कुछ लोगों को ये भी भरोसा नहीं कि इंसान चांद पर पहुंच चुका है. उन्हें इसके पीछे नासा का झूठ नज़र आता है.
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अटकलों, अफ़वाहों का इतिहास
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बात सरहद पार
समाप्त
सवाल ये है कि आख़िर ऐसी साज़िशों और अफ़वाहों पर लोग यक़ीन कैसे कर लेते हैं? ऐसी अटकलों का इंसानियत के इतिहास से पुराना ताल्लुक़ रहा है.
ईसा के बाद तीसरी सदी में ही कुछ लोगों ने अफ़वाह फैलाई थी कि मैरी मैग्डालेन की शादी ईसा मसीह से हुई थी.
कुछ साल पहले आए उपन्यास द डा विंची कोड से भी इस थ्योरी को बल मिला.
उसके बाद एंजेल्स ऐंड डेमन्स से अठारहवीं सदी के एक ईसाई तरक़्क़ीपसंद फ़िरक़े के लोगों को बदनाम किया गया.
कहा गया कि इलुमिनाती नाम का ये समुदाय आज भी सक्रिय है और ईसाई धर्म का ख़ात्मा करना चाहता है.
ब्रिटेन की केंट यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर करेन डगलस ने इस बारे में काफ़ी रिसर्च की है.
वो बताती हैं कि आधे से ज़्यादा अमरीकी किसी न किसी साज़िश की थ्योरी पर यक़ीन रखते हैं. ऐसी बातों और अफ़वाहों पर यक़ीन की कई वजहें होती हैं.
करेन डगलस कहती हैं कि हम सभी कभी न कभी ऐसी अफ़वाहों पर भरोसा कर लेते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि हम अपनी सरकारों पर यक़ीन नहीं करते.
कुछ लोगों को विज्ञान पर भरोसा नहीं होता, तो भी वो कई बातों के पीछे साज़िशें देखते हैं.
कुछ लोगों को ऐसे समुदायों से जुड़ी बातों पर यक़ीन नहीं होता, जिससे उनका क़रीबी ताल्लुक़ नहीं होता.
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ऐसी साजिशों को कौन देता है हवा?
करेन डगलस को अपनी रिसर्च में कुछ दिलचस्प बातें भी पता चलीं. उन्होंने देखा कि कुछ लोगों को एकदम नया, अलग हटके होने का कुछ ज़्यादा ही एहसास होता है.
ऐसे लोग साज़िशों की थ्योरी को बढ़ावा देने में आगे होते हैं. आत्ममुग्ध यानी नार्सिसिस्ट लोगों को भी ऐसी अटकलें अच्छी लगती हैं.
इनकी बुनियाद पर वो ये दावा कर सकते हैं कि उन्हें कुछ ख़ास राज़ मालूम है, जो दुनिया में किसी को नहीं पता.
मशहूर लेखक माइकल बिलिग ने 1984 में लिखा था कि साज़िश की थ्योरी पर भरोसा करने वालों को लगता है कि उन्हें वो बात मालूम है जो ज़माने में किसी को नहीं पता.
एक्सपर्ट को भी नहीं मालूम. बिलिग की बात को डगलस के रिसर्च ने सही साबित किया है.
कुछ रिसर्च से ये भी पता चला है कि फ़िक्रमंद, दुनिया से बेज़ार, कटे हुए लोगों को ऐसी थ्योरी से राहत महसूस होती है.
जब उन्हें डर लगता है तो वो ऐसी बातों पर यक़ीन करके दिल बहला लेते हैं.
अक्सर लोगों को ये यक़ीन करने में दिक़्क़त होती है कि हम एक हिंसक दुनिया में रहते हैं, जहां पर बड़े पैमाने पर लोग मार दिए जाते हैं.
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ऐसी बातों पर यक़ीन की वजह
ब्रिटेन की ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर स्टीफन लेवांडोवस्की कहते हैं कि जब हम ये समझते हैं कि लोगों के क़त्लेआम के पीछे ताक़तवर लोगों का हाथ है, तो राहत महसूस होती है. लोगों को कुछ घटनाओं के पीछे की वजह जाननी होती है. उन्हें अनसुलझे सवालों के जवाब चाहिए होते हैं. ऐसे ही लोगों के बूते साज़िशों की अफ़वाहें फैलती हैं.
2017 में अमरीका में हुई लास वेगास मास शूटिंग में 58 लोग मारे गए थे.
एक वेबसाइट के मुताबिक़ इसको लेकर मुस्लिम आतंकवादियों का हाथ होने से लेकर इलुमिनाती का हाथ होने जैसी सौ से ज़्यादा साज़िशों की थ्योरी चली थी. जबकि सब की सब ग़लत थीं.
ऐसी बातों पर यक़ीन की एक वजह परवरिश भी होती है. जो लोग असुरक्षित माहौल में, मां-बाप से दूर पलते हैं, उन्हें साज़िश की बातों पर जल्दी भरोसा होता है.
करेन डगलस कहती हैं कि ऐसे असुरक्षित लोग, बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं. इस तरह से वो ख़ुद के अंदर के डर से पार पाने की कोशिश करते हैं.
इसमें कितनी कामयाबी मिलती है, वो अलग सवाल है. अब तक की रिसर्च तो ये कहती हैं कि इससे फ़िक्र दूर होने के बजाय और बढ़ जाती है.
लोग ख़ुद को ताक़त से महरूम समझते हैं. इसीलिए साज़िशों की अटकलों पर उनका यक़ीन बढ़ता जाता है.
बहुत से लोगों का ऐसी साज़िशों की अफ़वाहों पर यक़ीन करने के बेहद ख़तरनाक नतीजे निकलते हैं.
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सच और झूठ में फ़र्क़
इन बातों पर भरोसा करने वाले अक्सर सियासी हलचलों से दूर रहते हैं. इनके वोट डालने की उम्मीद भी बहुत कम रहती है.
धरती की आबो-हवा गर्म हो रही है, इस बात पर भरोसा न करने वाले अक्सर पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने में योगदान देते हैं.
इसी तरह वैक्सीन पर यक़ीन न करने वालों की वजह से बीमारियों को बढ़ावा मिलता है.
स्टीफ लेवांडोवस्की कहते हैं कि आज के दौर में तो जानकारियों का तूफ़ान आया हुआ है. इसमें तो सच और झूठ में फ़र्क़ करना और भी मुश्किल हो गया है.
क्योंकि लोग तो वैज्ञानिकों की बातों पर भी यक़ीन नहीं करते. जिनको भरोसा नहीं करना है, वो धरती के गर्म होने को लेकर वैज्ञानिक सबूतों को भी नकार देते हैं.
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बुनियादी विज्ञान पर एकमत ज़रूरी
आज दुनिया इसी वजह से कई धुरों में बंटी नज़र आती है. किसी को सच पर भरोसा है, तो किसी को साज़िश पर यक़ीन है.
अक्सर इन लोगों का आपस में कोई मेल नहीं होता. वो अपने जैसी सोच रखने वालों के बीच ही विचारों का लेन-देन करते हैं.
बेलफास्ट की क्वींस यूनिवर्सिटी के डेविड ग्राइम्स कहते हैं कि दुनिया एक है. इसे लेकर हमारी सोच भी एक होनी चाहिए, कुछ बुनियादी बातों पर.
बुनियादी विज्ञान के सिद्धांतों पर तो हम एक हो ही सकते हैं.
आज सोशल मीडिया से आंकड़े निकालकर हम, ऐसे लोगों की पहचान कर सकते हैं, जो साज़िशों की बातों को बढ़ावा देते हैं. अफवाहों को सच बताकर फैलाते हैं.
अक्सर लोग अपनी विचारधारा से विरोध रखने वाली बातों पर भरोसा करने से इनकार कर देते हैं.
जैसे कि पूंजीवादी और खुले बाज़ार के पैरोकारों को धरती के गर्म होते जाने की बात पर यक़ीन नहीं है.
देखें, फ़ेक न्यूज़ पहचानने के तरीक़े
अफ़वाहों को रोकने के लिए क्या कर रही है दुनिया?
ऐसी अफ़वाहों को रोकने के लिए दुनिया में कुछ प्रयोग किए जा रहे हैं. जैसे कि नॉर्वे में हर लेख के बाद लोगों से पूछा जाता है कि वो इस से क्या सबक़ लेते हैं.
इसके बाद ही वो उस लेख को दूसरों से शेयर कर सकते हैं. वैसे, लोगों अपने विचारों को लेकर ज़्यादा खुले ज़हन के नहीं होते. उनकी राय बदलना इतना आसान नहीं.
हां, हमें सोशल मीडिया पर मिली जानकारियों को शेयर करने में सावधानी ज़रूर बरतनी चाहिए. हर बात पर तुरंत यक़ीन करना नुक़सानदेह है.
कुछ भी अजीबो-ग़रीब लगे, तो ख़ुद से सवाल कीजिए. दूसरों से पूछिए. ऐसा करेंगे, तो आप साज़िश की बातें फैलाने वालों पर भारी पड़ेंगे.
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