हर काम को बेहतरीन करने की ज़िद एक दिन बीमार बना देगी
- अमेंडा रुगरी
- बीबीसी संवाददाता
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बचपन से हमें सिखाया जाता है कि जो काम करो उसे हर लिहाज़ से मुकम्मल करो. ज़र्रा बराबर भी कोई कमी ना छोड़ो. 'पर्फेक्शनिज़्म' शब्द हमें बचपन से ही घुट्टी में घोलकर पिला दिया जाता है.
ये लफ़्ज़ बड़े होने के साथ ज़हन में अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर लेता है कि अगर काम में बाल बराबर भी कमी रह जाए तो उसे क़बूल नहीं कर पाते.
हालांकि ऐसा हर कोई नहीं करता. बहुत से लोग बेपरवाह रहते हैं. लेकिन अक्सरियत ऐसे लोगों की है जिनका पर्फेक्शनिज़म पर ज़्यादा ज़ोर रहता है.
पर्फेक्शनिज़्म या हर काम को बिना किसी कमी के पूरा करना, मोटे तौर पर अच्छे रूप में माना जाता है.
लेकिन हालिया रिसर्च बताती हैं कि पर्फेक्शनिज़्म की आदत एक तरह का दिमाग़ी ख़लल है. इसका सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है. हैरत की बात तो ये है कि गुज़रते वक़्त के साथ लोगों में ये आदत मज़बूत हो रही है.
ब्रिटेन में थॉमस कुरैन और एंड्र्यू हिल्स नाम के दो रिसर्चर ने 1989 से साल 2016 तक विस्तार से कई पीढ़ियों पर इस बारे में रिसर्च की. इस रिसर्च में ब्रिटेन, अमरीका और कनाडा के छात्रों को लिया गया था. इस तजुर्बे में पाया गया कि हर साल कॉलेज में आने वाले छात्रो में परफ़ेक्शनिज़्म की आदत गहरे पैठ रही है.
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रिसर्चर इस आदत को एक महामारी मानते हैं जो बड़ी तेज़ी से फैल रही है. बच्चों में भी ये ख़ब्त तेज़ी से बढ़ रहा है. लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं कि उनकी शख़्सियत मुकम्मल हो रही है.
बल्कि ये आदत उन्हें अपनी सलाहियतों और क़ाबलियत को समझने से रोकती है. बच्चों को ज़हनी तौर पर हार को खुले दिल से स्वीकार करने से रोकती है.
दरअसल पर्फेक्शनिज़्म या पूर्णतावाद जैसी कोई चीज़ दुनिया में होती ही नहीं है. हरेक में कहीं ना कहीं कोई कमी ज़रूर होती है.
धरती ही पूरी तरह गोल नहीं, तो कोई काम बिना कमी के हो जाए, ये मुमकिन नहीं. यही कमी हमारे काम में भी रह जाती है.
हरेक चीज़ देखने और समझने का सबका अपना नज़रिया होता है. जो चीज़ आपको पर्फेक्ट लग रही है, हो सकता है उसी पर्फेक्शन में दूसरा कोई ख़ामी तलाश ले.
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परफ़ेक्शन को हमेशा तलाशने की सबसे बड़ी कमी है कि वो इंसान को ग़लती करने से रोकता है.
जबकि बड़े बड़े विद्वानों का कहना कि जब तक आप ग़लती नहीं करते आप में सुधार नहीं होता. और असल ज़िंदगी के तजुर्बे बताते हैं कि ग़लती करने पर ही एहसास होता है कि कमी कहां है.
हरेक ग़लती पर्फेक्शनिज़्म लाती है. ये बात सिर्फ़ काम में ही लागू नहीं होती बल्कि इंसानी रिश्तों में भी पूरी तरह से लागू होती है. ग़लती करके उसे सुधारने से रिश्ते बहतर होते हैं. हरेक चीज़ में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है.
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परफ़ेक्शन की आदत ना सिर्फ़ कामयाबी के आड़े आती है, बल्कि अनगिनत बीमारियों को जन्म देती है. जैसे तनाव, अनिद्रा, आत्म हत्या जैसी सोच ज़हन में आना, ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने का ख़याल आना, हर समय खाते रहने की आदत का पनपना, ख़ुद को नाकाम मानना.
हर चीज़ में कोई ना कोई कमी तलाशते रहने की आदत पर्फेक्शनिज़्म के जुनून की वजह से ही आती है. ये इंसान को पूरी तरह से दिमाग़ी मरीज़ बना देती है.
रिसर्चर सारा इगन के मुताबिक़, जितना ही आप पर्फेक्शनिज़्म की ओर जाएंगे उतना ही ज़हनी तौर पर परेशानी में घिरते चले जाएंगे.
वैसे परफ़ेक्शनिज़्म नेगटिव होने के साथ-साथ कुछ हद तक ठीक भी होता है. अपना मक़सद हासिल करने के लिए ऊंचे पैमाने रखकर काम करना पॉज़िटिव पर्फेक्शनिज़्म की ओर पहला क़दम है.
अगर मन-मुताबिक़ नतीजे नहीं भी आएं तो निराश या हताश होने की बजाय, फिर से उसी मेहनत और लगन से काम करना असल पर्फेक्शन की ओर ले जाता है.
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नकारात्मक पर्फेक्शनिज़्म वो है जब कोई कमी रह जाने या असफल हो जाने पर तनाव दिल दिमाग को अपनी चपेट में ले ले. ऐसे में ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने की सोच तेज़ी से जगह बनाने लगती है. इंसान ख़ुद को ही तकलीफ़ देने लगता है.
चीन में एक हज़ार छात्रों पर रिसर्च की गई तो, पाया गया कि जो छात्र अपनी कमी या नाकामी को खुले दिल से स्वीकार करके फिर से मेहनत कर रहे थे वो ज़्यादा खुश और क्रिएटिव सोच वाले थे.
बहुत सी रिसर्च ऐसा भी सुझाती हैं कि परफ़ेक्शन की तलाश असल में इंसान के अंदर की ही आवाज़ होती है.
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मिसाल के लिए बहुत से छात्रों के बहुत मेहनत के बाद भी इम्तिहान में अच्छे नंबर नहीं आते.
लेकिन इसका ये मतलब हरगिज़ नहीं है कि वो छात्र इंसान के तौर पर गड़बड़ है. हो सकता है किसी नामालूम वजह से वो इम्तिहान में पूछे गए सवालों का जवाब उतने अच्छे तरीक़े से ना दे पाया हो जितनी अच्छी तरह से वो उनके जवाब जानता हो.
अगर वो छात्र ख़ुद को ये समझा ले कि अगली बार और अच्छा करेगा तो ये उस छात्र का पर्फेक्शनिज़्म है.
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इसके अलावा पर्फेक्शनिज़्म के पीछे दौड़ने वाले बहुत जल्द हिम्मत हार जाते हैं. एक बार नाकाम होते ही उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है. उन्हें लगता अब सब ख़त्म हो गया. उन्हें अपने आप पर शर्म आने लगती है. जबकि ये सच्चाई नहीं है.
हमारे दिमाग में पर्फक्शनिज़्म जैसी बीमारी को जन्म देने और उसे बरक़रार रखने में बहुत हद तक हमारा समाज और अर्थव्यवस्था ज़िम्मेदार हैं.
मिसाल के लिए हम ख़ुद का और घर का रख-रखाव कैसे करते हैं, उसी से मान लिया जाता है कि हम कितने सलीक़ेमंद हैं.
जिन लोगों के बर्ताव में ये सलीक़ा नज़र नहीं आता उन्हें कमतर समझ लिया जाता है. यानी बिना कुछ कहे एक तरह का मुक़ाबला पैदा कर दिया जाता है. यही मुक़ाबला जीतने के लिए पर्फेक्शनिज़्म की लड़ाई शुरू हो जाती है.
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इसी तरह ऑफिस में उन कर्मचारियों की पूछ ज़्यादा होती है जिनके काम में कोई कमी नहीं होती. तमाम बड़ी ज़िम्मेदारियां और फ़ायदे ऐसे ही कर्मचारियों को मिलते हैं. जबकि यही ज़िम्मेदारियां वो लोग भी उठाना चाहते हैं, जिनके काम में थोड़ी-बहुत कमी रही जाती है. लिहाज़ा पर्फेक्शन का आंकड़ा छूने के लिए वो दिन-रात कोशिश शुरू कर देते हैं.
कभी-कभी तो पर्फेक्शनिज़्म के पीछे भागते भागते ज़्यादा ग़लतियां करना शुरू कर देते हैं और तनाव का शिकार होने लगते हैं.
पर्फेक्शनिज़्म के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है दिमाग़ी सुकून. परफेक्ट बनने के लिए ख़ुद को ये समझाना बहुत ज़रूरी है कि ग़लती कभी भी किसी से भी हो सकती है. दूसरों की ग़लतियां माफ़ करना सीखें. अपनी ग़लतियां सुधार कर फिर से उसी लगन और मेहनत के साथ आगे बढ़ने की कोशिश करें.
काम को बिनी किसी कमी के पूरा करना अच्छी बात है. मगर इसे ख़ब्त की तरह पाल लेना ठीक नहीं.
आख़िर इंसान ग़लतियों का पुतला जो ठहरा.
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