मैनेजमेंट गुरुओं को भाया हिंदुस्तानी 'जुगाड़'

  • क्रिश्चन कोच
  • बीबीसी ट्रेवल
दिल्ली का एक दुकानदार

बॉलीवुड में तो 'दिल्ली की सर्दी' के बारे गाना लिखा गया. मगर, हक़ीक़त ये है कि दिल्ली में गर्मी का सीज़न बहुत मुश्किल भरा हो सकता है. गर्मियों में दिल्ली का तापमान कई बार 47-48 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है.

ब्रिटिश नागरिक डीन नेल्सन हाल ही में दिल्ली में रहने आए हैं. उन्होंने दिल्ली के निज़ामुद्दीन वेस्ट इलाक़े में अपना आशियाना बनाया है. वो अपने घर के लिए एसी सिस्टम की तलाश कर रहे थे. इसके लिए वो एक दिन अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' के पन्ने पलट रहे थे. तभी, नेल्सन को एक विज्ञापन दिखाई दिया. ये विज्ञापन 'स्नोब्रीज़' नाम की मशीन के बारे में था, जो बर्फ़ से ठंडा करती थी.

इस मशीन को रिटायर्ड पत्रकार ने बनाया था, ताकि ग्रामीण लोगों को मदद कर सकें. नेल्सन इस मशीन के बारे में जानकर हैरान थे. ये किसी आम एयरकंडीशनर से बहुत सस्ता था.

डीन नेल्सन ने इसे आज़माने की ठानी. उन्होंने एक स्नोब्रीज़ मशीन का ऑर्डर दे दिया. इसे लगाने के लिए किसी बढ़ई या इलेक्ट्रीशियन की ज़रूरत थी. जब स्नोब्रीज़ नेल्सन के घर पहुंची तो उनकी हैरानी और भी बढ़ गई. ये मशीन एक नीले रंग के बड़े से डस्टबिन जैसी दिख रही थी.

इसका मुंह स्केटबोर्ड जैसा दिख रहा था. नेल्सन कहते हैं कि इस मशीन ने उन्हें फ़ौरन जुगाड़ शब्द की याद दिला दी, जो बिल्कुल देसी और विशुद्ध भारतीय है, जो बहुत सी मुश्किलों का हल ढूंढ लेता है.

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हिंदुस्तान का मिज़ाज

आप भारत के गांवों की तरफ़ निकल जाएं, तो क़दम-क़दम पर जुगाड़ की मिसालें दिख जाएंगे. कबाड़ जैसे ट्रक की मदद से पूरे गांव को बिजली की सप्लाई होती दिखेगी.

कोट के हैंगर से बने टीवी के एंटीना दिखेंगे. गांवों में अक्सर चटख रंगों वाली तिपहिया गाड़ियां दिख जाती हैं, जो एक शोर मचाने वाले वाटर पम्प की मोटर और कुछ कल-पुर्ज़ों को जोड़कर बनाए गए इंजन से चलती हैं.

कुल मिलाकर जुगाड़ हिंदुस्तान का मिज़ाज है. हर मुश्किल का तोड़ ढूंढ लेने का जज़्बा. तभी तो मुंबई के डब्बावाले मुश्किल बैलेंस बनाकर गाड़ियों में सैकड़ों डब्बे लाद कर रोज़ाना शहर की भीड़ भरी सड़कों से गुज़रते हैं.

सही जगह और सही वक़्त पर शहर के दो लाख लोगों को गर्मा-गर्म खाना पहुंचाते हैं. मुंबई के डब्बावालों की मुस्तैदी का आलम ये है कि एक करोड़ साठ लाख में शायद किसी एक डब्बे को पहुंचाने में ग़लती हो. वो इतने भरोसेमंद हैं कि दुनिया की बड़ी कूरियर कंपनी फेडेक्स ने डब्बावालों से सटीक डिलिवरी के राज़ को समझने की कोशिश की.

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कार्पोरेट को भाया जुगाड़

हाल के दिनों में कार्पोरेट दुनिया में भी जुगाड़ शब्द बहुत लोकप्रिय हो रहा है. मैनेजमेंट गुरू पश्चिमी देश के कारोबारियों को सलाह दे रहे है कि वो भी जुगाड़ सीखें.

मुश्किल वक़्त में कम संसाधनों में काम चलाने का हुनर सीखें. युवा भारतीयों को अपने देश के जुगाड़ पर गर्व होने लगा है. वो ट्विटर पर #jugaadnation हैशटैग के ज़रिए अपने देश की इस ख़ूबी को सलाम कर रहे हैं.

इस हैशटैग के ज़रिए वो भारत में प्रचलित तमाम जुगाड़ों की तस्वीरें साझा कर रहे हैं. जैसे कि लैपटॉप की स्क्रीन का आईने की तरह इस्तेमाल करते हुए शेविंग करना. या फिर, लोहे पर मांस को बारबेक्यू करना. ऐसी तस्वीरें ख़ूब वायरल हो रही हैं.

चेन्नई के रहने वाले आंत्रेप्रेन्योर कन्नन लक्ष्मीनारायणन कहते हैं कि तमाम मुश्किलों का फौरी हल निकालना भारतीयों की परंपरा रही है. अगर आप गांवों में रहते हैं तो अक्सर आप का सामना बिजली कटौती से होगा. बहुत से गांवों में लोग ज़रूरत पड़ने पर ट्रैक्टर या गाड़ी चलाकर रोशनी कर लेते हैं.

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मशीन बनी वरदान

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लक्ष्मीनारायणन की कंपनी वोर्टेक्स इंजीनिरिंग प्राइवेट लिमिटेड ने ग्रामाटेलर नाम से एटीएम मशीन बनाई है.

ये मशीन 70 वाट के बल्ब के बराबर बिजली में चल जाती है. बहुत कम पैसे से तैयार की गई इस एटीएम मशीन को अनपढ़ लोग भी चला सकते हैं. उनकी पहचान इस मशीन में लगे फिंगरप्रिंट स्कैनर से हो जाती है. बिजली न होने पर ग्रामाटेलर बैटरी से चल जाती है.

ग्रामाटेलर किसी एटीएम मशीन के मुक़ाबले एक चौथाई क़ीमत में ही आ जाती है. ग्रामीण इलाक़ों के लिए ये मशीन वरदान बन गई है. क्योंकि देश के कई गांव ऐसे हैं, जहां से एटीएम मशीनें बहुत दूर होती हैं.

भारत जैसे देश में जहां, विश्व बैंक के मुताबिक़ 27 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं, वहां जुगाड़ बहुत काम की चीज़ है. बहुत सी ज़रूरतें, छोटे-मोटे फौरी नुस्खों से पूरी कर ली जाती हैं. ये हिंदुस्तानियों की शानदार क्रिएटिविटी की मिसाल है.

भारत के जुगाड़ पर डीन नेल्सन ने 'जुगाड़ यात्रा: एक्सप्लोरिंग द इंडियन आर्ट ऑफ़ प्रॉब्लम सॉल्विंग' से किताब लिख डाली है. नेल्सन कहते हैं कि, 'जब आप मुश्किल हालात को भारतीयों के समस्या के समाधान तलाशने के हुनर से जोड़ते हैं, तो नतीजा होता है जुगाड़. समस्याओं का ऐसा निदान, जो दुनिया में कहीं और नहीं देखने को मिलता.'

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कैसे हुई मंगलयान के खर्च में कटौती?

भारत की सरकार ने हाल के दिनों में जुगाड़ को और भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया है.

नवंबर 2013 में भारत ने मंगलयान लॉन्च किया. दस महीने बाद ये मंगल का चक्कर लगाने वाला एशिया का पहला अंतरिक्ष यान बन गया. बहुत ही कम ख़र्च में पूरे किए गए इस मिशन को आज स्पेस रेस की मिसाल माना जाता है.

भारत के मंगलयान मिशन में केवल 7.5 करोड़ डॉलर ख़र्च हुए. इसके मुक़ाबले, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर अब तक 160 अरब डॉलर ख़र्च हो चुके हैं.

मंगलयान इतना सस्ता इसीलिए पड़ा क्योंकि भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने जुगाड़ का भरपूर इस्तेमाल किया. पुराने अंतरिक्ष यानों के पुर्ज़ों को इस्तेमाल किया गया. इसकी टेस्टिंग को भी सीमित रखकर इसे ख़र्चीला होने से बचाया गया.

मंगलयान पर काम करने वाले वैज्ञानिकों की जो तस्वीरें इसरो ने जारी कीं, उनमें भारतीय वैज्ञानिक सिर में प्लास्टिक की वो कैप पहने दिखते हैं, जो कई बार नहाने के दौरान काम में लायी जाती है.

बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी कि भारत ने जितने पैसे में मंगलयान भेजा, उससे ज़्यादा ख़र्च तो स्पेस मिशन पर बनी हॉलीवुड फ़िल्म ग्रैविटी को बनाने में आया.

नेल्सन कहते हैं कि, 'मंगलयान का बजट देखते ही दूसरे देशों के वैज्ञानिकों ने कहा होता कि भाई इतने पैसे में तो न हो पाएगा. मगर, भारतीय आसानी से हार नहीं मानते.'

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दूसरे देशों में भी लोकप्रिय है जुगाड़

अब तो 'जुगाड़ तकनीक' का इस्तेमाल भारत की कॉर्पोरेट दुनिया में भी ख़ूब हो रहा है. जैसे कि टाटा ग्रुप ने 'स्वच्छ' के नाम से जो वाटर प्यूरिफ़ायर बनाया है, वो बहुत सस्ता है. बिजली के बिना ही चलता है. ये उन लोगों के लिए बहुत कारगर है, जो साफ़ पानी से महरूम हैं.

टाटा ने 2009 में लखटकिया कार नैनो लॉन्च की थी, जो दुनिया की 'सबसे सस्ती कार' थी. इसमें बहुत शानदार फ़ीचर्स तो नहीं थे. मगर ये बहुत से भारतीयों का सपना पूरा करने वाली कार थी.

जुगाड़ पर आई किताब-'जुगाड़ इनोवेशन:थिंक फ्रूगल, बी फ्लेक्सिबल, जेनरेट ब्रेकथ्रू ग्रोथ' के सह लेखक जयदीप प्रभु कहते हैं कि पश्चिमी देशों के उद्यमी जो स्टार्ट-अप शुरू करना चाहते हैं, वो भारत के 'जुगाड़' का फ़ायदा उठा सकते हैं.

जयदीप कहते हैं कि, 'जुगाड़ की मदद से आप बहुत छोटी स्टार्ट अप कंपनियों को बहुत कम ख़र्च में वो काम करते देखते हैं, जो बड़ी कंपनियां मोटी रक़म ख़र्च कर के करती हैं.' वो इसकी मिसाल के तौर पर रैस्पबेरी पाई का नाम लेते हैं.

ये क्रेडिट कार्ड के बराबर के कंप्यूटर हैं, जो युवाओं को कोडिंग सीखने में मदद करते हैं. इसे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में ईजाद किया गया था. आज यूनिवर्सिटी में तकनीक की मदद से छात्रों के समूह वो चीजें ईजाद कर रहे हैं, जिन्हें दस-बीस साल पहले केवल सरकारें या बड़ी कंपनियां ही बना पाती थीं.

वैसे, सिर्फ़ भारतीय ही नहीं कई और देशों के लोग भी जुगाड़ का हुनर रखते हैं. ब्राज़ील में इसे गैम्बियार्रा कहते हैं. वहीं चीन में इसे जिझु चुआंगचिन कहते हैं.

लेकिन, नेल्सन कहते हैं कि भारतीयों के जुगाड़ वाले हुनर की बात ही कुछ और है. वो कहते हैं कि गणपति को जो स्वरूप मिला, वो भी भारतीयों के जुगाड़ का ही प्रतीक है. जब शिव ने गणेश का सिर काट दिया था, तो उन्हें हाथी का सिर लगा दिया गया, क्योंकि किसी इंसान का सिर उस वक़्त मिल नहीं रहा था.

हिंदुस्तान के हालिया इतिहास की जड़ें 1950 के दशक की देन हैं. नेहरू सरकार के दौरान जब पश्चिमी मशीनों के कल-पुर्ज़े नहीं मिलते थे, तो उनका देसी तोड़ निकाल लिया जाता था. मुश्किल के उस दौर ने भारतीयों को नई पहचान दी. नेल्सन कहते हैं कि, 'भारतीय आविष्कारक हैं. हर मुश्किल का तोड़ निकाल लेते हैं.'

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सुरक्षा से समझौता

वैसे कुछ भारतीय ऐसे भी हैं जो जुगाड़ को बुरी चीज़ मानते हैं. जो घटिया दर्ज़े का काम होता है. नियमों के ख़िलाफ़ जा कर किया जाता है. जयदीप प्रभु कहते हैं कि जब उनकी किताब बाज़ार में आई थी तो बहुत से लोगों ने इसका विरोध किया था. उनका कहना था कि जिस चीज़ को बुरा माना जाता है, उसकी तारीफ़ में किताब कैसे लिखी जा सकती है.

जब दिल्ली में ऑड-इवेन फॉर्मूला लागू हुआ, तो कई दिल्लीवालों ने फ़र्ज़ी नंबर प्लेट लगाकर काम निकाला. इसी तरह बहुत से लोग हैं जो किसी से बात करना चाहते हैं तो मिस्ड कॉल करते हैं. ये ख़राब जुगाड़ की मिसालें हैं.

कई बार जुगाड़ के चक्कर में सेहत और सुरक्षा से समझौता किया जाता है. टाटा नैनो इसकी मिसाल है, जो सुरक्षा के टेस्ट में नाकाम हो गई थी.

नेल्सन कहते हैं कि कई बार जुगाड़ के चक्कर में आम भारतीय, अच्छी चीज़ों की जगह ख़राब से भी काम चला लेते हैं. अगर हमें अपनी प्रतिभा का लोहा दुनिया को मनवाना है, तो ख़राब जुगाड़ों से बचना होगा.

इस काम में तकनीक हमारी मदद कर सकती है. जयदीप प्रभु कहते हैं कि पीएम नरेंद्र मोदी का भारत को डिजिटल पावरहाउस बनाने का सपना इसी दिशा में उठाया गया क़दम है. भारत आज दुनिया में मोबाइल का दूसरा सबसे बड़ा बाज़ार है. मोबाइल तकनीक का बेहतर इस्तेमाल भारत को नई ऊंचाई पर ले जा सकता है.

रही बात डीन नेल्सन की स्नोब्रीज़ मशीन की, तो वो काम की चीज़ निकली. हालांकि इसके लिए उन्हें रोज़ाना बीस किलो बर्फ़ मंगानी पड़ती थी, जो 60 रुपए की पड़ती थी. और ये कोई सस्ता सौदा नहीं था.

नेल्सन कहते हैं कि मशीन भले काम न आई हो, मगर जज़्बा बहुत काम का है. ये भारतीयों को हर चुनौती का तोड़ निकालने के लिए प्रोत्साहित करता है. अब ये भारतीयों पर है कि वो इस जुगाड़ की हंसी उड़ाएं या फिर उस पर गर्व करें.

(मूल लेख अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, जो बीबीसी पर उपलब्ध है.)

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